Book Title: Na Janma Na Mrutyu
Author(s): Chandraprabhsagar
Publisher: Pustak Mahal

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Page 69
________________ तदा बंधो यदा चित्तं, सक्तं कास्वपि दृष्टिषु। तदा मोक्षो यदा चित्तमासक्तं सर्वदृष्टिषु ॥ अष्टावक्र कहते हैं-जब चित्त किसी दृष्टि, किसी विषय में लगा है, तब बंध है और चित्त जब सब दृष्टियों से अनासक्त है, तब मोक्ष है। प्रथम चरण में अष्टावक्र ने व्यक्ति को मन के साथ जोड़ा और कहा-मन से अतिरिक्त, मन से विच्छिन्न रहना ही, मन से भिन्न रहना ही मोक्ष है। वे आगे बंधन और मोक्ष को स्पष्ट करते हुए कहते हैं कि जहां व्यक्ति विषयों में आसक्त है, वह आसक्ति ही व्यक्ति के लिए बंधन है। जहां व्यक्ति हर दृष्टि से अनासक्त हो गया, वह व्यक्ति मुक्त है। मनुष्य के मन में पलने वाले आकर्षण का नाम ही आसक्ति है; राग की ग्रंथि का नाम ही आसक्ति है। मनुष्य उन्हीं चीजों को पसंद करता है, जिनके प्रति उसका खिंचाव है, रागात्मक संबंध है। जिस रंग के प्रति हमारी आसक्ति होती है, उसको देखते ही मन प्रफुल्लित हो उठता है। अगर इस आकर्षण से, इस परिग्रह से हम मुक्त होना चाहते हैं, तो संकल्प लें कि हम अपने जीवन में केवल उस एक ही रंग के वस्त्र पहनेंगे। तब हम उस एक रंग में कितनी विविधताएं, कितनी 'वैरायटी' ढूढेंगे? अंततः उस वस्त्र, उस रंग के प्रति रहने वाला राग छूट ही जाएगा। जीभ की जिस सब्जी के प्रति आसक्ति है, वही सब्जी अच्छी लगती है। यह आसक्ति मिट जानी चाहिए। तुम मकान में रहो, मकान के मालिक होकर। कहीं मकान तुम्हारा मालिक न हो जाए, इस बात का ध्यान रखो। एक व्यक्ति ने एक संत को अपने घर पर आमंत्रित किया, ताकि संत उसका मकान देखें, उसकी तारीफ करें और समाज में इस बात का ‘प्रचार' करें। उस व्यक्ति ने संत को पूरा मकान दिखाया, एक-एक चीज दिखाई, पर संत ने कोई तारीफ नहीं की। उसने संत के मन की बात ताड़ने के लिए संत से पूछा-प्रभु, अगर मकान में कुछ कमी-बेशी रह गई है, तो बताएं, ताकि संपूर्णता आ जाए। व्यक्ति की बात को संत ने सुना, पर अनसुना कर दिया। व्यक्ति ने फिर पूछा। अंततः संत ने कहा-बाकी सब तो ठीक है, पर तुमने इसमें दरवाजा क्यों लगवाया? अगर दरवाजा न लगवाता और पूरी तरह बंद मकान ही बनाता, तो तू सदा-सदा इसमें ही रहता। तुझे बाहर निकलने की जरूरत ही नहीं रहती। आदमी ने कहा-अगर मकान के द्वार न होगा, तो घर से बाहर कैसे निकलना होगा? संत ने कहा-जब अनंतः घर से बाहर निकलना तय है, फिर मकान के प्रति आसक्ति क्यों? 68 For Personal & Private Use Only Jain Education International www.jainelibrary.org

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