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चित्त की अशांति और आसक्तियों को। तुम सुखी बनो वीततृष्णा होकर, वीतमोह होकर, वीतराग होकर। अगला सूत्र है
अलमर्थेन कामेन सुकृतेनापि कर्मणा।
एभ्यः संसारकान्तारे न विश्रान्तमभून्मनः ॥ अर्थात अर्थ, काम और सुकृत कर्म बहुत हो चुके हैं। इनसे भी संसार रूपी जंगल में मन विश्रांति को प्राप्त नहीं हुआ। ___ अष्टावक्र कहते हैं कि जन्मों-जन्मों से हम काम को सिंचित करते रहे हैं, धन को बटोरते रहे हैं, पर क्या तृप्ति आई? अब तक तुमने सुकृत कर्म भी कितने किए, पर क्या मन को विश्राम मिला? हजारों बार मंदिर गए, मगर मन क्या मंदिर बन पाया? अच्छे और बुरे-दोनों प्रकार के कर्म में गति अब भी जारी है, उठा-पटक बरकरार है। अर्थ, काम और सुकृत कर्म बहुत हो चुके। इनसे मन विश्रान्ति को प्राप्त नहीं हुआ। अब तो उपराम कर। आत्मस्थित रह। अर्नेस्ट क्रास्वी की प्यारी कविता है
ओ. मेरे मन, मौन रह। कार्य की व्यस्तता में तुम जो अपना आपा भूल जाते हो, उससे थोड़ी देर के लिए दूर हट! घड़ी-भर के लिए
अकेला रहने से मत डर! ओ रे मन, मौन रह। रुक जा। कब तक भटकता रहेगा। वांछित-अवांछित खूब हुआ। अब केवल मौन, शांत । शांति में अंतर्लीनता ही परम सौख्य है। मन की शांति और चित्त की निर्मलता ही हमारा ध्येय हो। मन की शांति में ही सत्य का अवतरण है; मन की शांति में ही ज्ञान का उदय है।
एक प्रिय घटना है-जिसने मुझे सहज ही प्रभावित और तरंगित किया। यह घटना सिंगोन के संत जीऊन से संबंधित है। संत जीऊन अपने जमाने के बड़े विद्वान प्रवक्ता थे। दूर-दूर से लोग उन्हें बुलाने आते। एक दिन उनकी मां का उनके पास पत्र आया। मां ने पत्र में लिखा-मुझे नहीं लगता कि तुम धर्म के एक सच्चे उपासक और सच्चे अनुयायी हो। मुझे लगता है कि तुमने औरों के लिए अपने आपको शब्दों का चलता-फिरता कोश बना लिया है। याद रखो, सूचनाओं और सिद्धांतों का, यश और सम्मान का कोई अंत नहीं है। मैं चाहती हूं कि तुम
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