Book Title: Na Janma Na Mrutyu
Author(s): Chandraprabhsagar
Publisher: Pustak Mahal

View full book text
Previous | Next

Page 86
________________ परिस्थितियों के प्रति निरपेक्षता - जीवन के समस्त सुख और दुख का जवाबदेह स्वयं मनुष्य है। संपत्ति हो, जो चाहे विपत्ति, सुख हो, चाहे दुख अपने सारे क्रियाकलापों का उत्तरदायी स्वयं मनुष्य ही है। समय का दुष्चक्र कहें, नियति की अमिट रेखा या भाग्य की प्रबल विडंबना-इन सबके प्रति मनुष्य ही उत्तरदायी है। समय तथा ग्रह-गोचर भी हमारे अपने ही प्रतिबिंब हैं और नियति भी हमारा अपना ही हस्ताक्षर है। भाग्य भी हमारी अपनी ही प्रतिध्वनि है। आदमी भाग्य, नियति और समय के मत्थे पर दोषारोपण करके अपने आपसे पलायन भले ही कर ले, पर वह उनकी दृष्टि से बच नहीं सकता। भाग्य है, तो उसका परिणाम भी हमें भुगतना होगा, नियति की अनंत रेखाएं हैं, तो उसके परिणामों से भी हमें ही गुजरना होगा और अगर ग्रह-गोचर की कोई उठा-पठक है, तो वह भी हमारे ही द्वारों से गुजरने वाली है। आदमी अपने जीवन में जन्म-जन्मांतर में जैसा करता है, वैसा ही उसे सौगात के रूप में लौटकर मिलता है। यदि हम चाहते हैं कि हमें किसी के मुंह से गालियां सुनने को न मिलें, तो इसके लिए जरूरी है कि हम भी गाली-गलौच न करें। यह तय है कि गीतों के बदले में गीत और गालियों के बदले में गालियां ही मिलती हैं। औरों के द्वारा हमारे प्रति जो व्यवहार होता है, ऐसा मत समझना कि वह व्यवहार औरों के द्वारा हमारे प्रति हो रहा है, वरन् हमने जैसा किया था, वही उपहार के रूप में लौटकर आ रहा है। आज अगर किसी ने आपको नालायक कहा, तो संभव है कि यह शब्द सुनकर आप आगबबूला हो उठे, लेकिन यह निश्चित है कि आपने भी कभी किसी को नालायक शब्द कहा होगा, जो प्रतिध्वनित होकर वापस आ रहा है। प्रकृति की यह व्यवस्था है कि आप जो आवाज करेंगे, वह गूंजेगी और फिर आप पर ही बरसेगी। आपने कभी सोचा कि मंदिरों में शिखर क्यों बनाए जाते हैं, सीधी-सादी छत ही क्यों नहीं बना दी जाती? इसका कारण यह है कि जिन मंत्रों का हम उच्चारण करें, वे मंत्र प्रतिध्वनित होकर पुनः हम पर ही बरसें और हमारी सोई हुई अन्तश्चेतना को जगा दें। हमारे चित्त को आध्यात्मिक और परमात्ममूलक सुकून मिल जाए, इसीलए मंदिरों के ये शिखर बनते हैं। यह 85 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 84 85 86 87 88 89 90 91 92 93 94 95 96 97 98 99 100 101 102 103 104 105 106 107 108 109 110 111 112 113 114 115 116 117 118 119 120 121 122 123 124 125 126 127 128 129 130