Book Title: Na Janma Na Mrutyu
Author(s): Chandraprabhsagar
Publisher: Pustak Mahal

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Page 96
________________ दूध पिलाओ, तो यह भी उसकी ओर से कर्म करना हुआ । इस तरह हमने मां की कोख में ही कर्म करना शुरू कर दिया । प्रकृति हर किसी से कर्म करवाती है। कर्म के बिना रहना प्राणि-जाति के लिए संभव ही नहीं है। कुछ कर्म स्वाभाविक कर्म होते हैं; कुछ आवश्यक कर्म होते हैं; कुछ प्रतिकर्म और निष्कर्म होते हैं और कुछ कर्म अकर्म होते हैं । क्रिया निरंतर चलती रहती है। भगवान कृष्ण गीता में अर्जुन को निरंतर कर्म करते रहने की ही प्रेरणा देते हैं। साथ में यह भी कहते हैं कि तुम कर्ता-भाव से हटकर कर्म करो । अज्ञान से कर्म तभी तक चलता है, जब तक व्यक्ति इस भाव के साथ कर्म करता है कि 'करने वाला मैं हूं' | 'मैं' का अहंकार आ जाने के कारण ही कर्म व्यक्ति के लिए अज्ञान का कारण बन जाता है । जनक एक बात और कहना चाहते हैं कि कर्म के त्याग का अनुष्ठान भी अज्ञान से होता है। यह बहुत गहरी बात है । कर्म का त्याग करना है, तो तुम त्याग करो, पर उसे अनुष्ठान क्यों बनाते हो । प्रयास पूर्वक किए जाने वाले त्याग से किसी भी वस्तु अथवा व्यक्ति को छोड़ा जा सकता है, लेकिन छूटा नहीं जा सकता । छोड़ने में और छूटने में फर्क है । छोड़ता आदमी है और छूटता स्वतः है; छूटना स्वभाव है और छोड़ना कर्म है । त्याग तो वही है, जो ज्ञानमूलक होता है । अज्ञानमूलक तप भी मनुष्य के लिए नरक का हेतु बनता है। कहते हैं - कमठ पंचाग्नि तप कर रहा था । वह केवल फलाहार लेता था । पार्श्वनाथ ने उसके पास जाकर कहा- तपस्वी, तुम्हारा तप तुम्हारे लिए नरक का कारण है । तप वही सार्थक होता है, जो ज्ञानमूलक होता है । जिस तप में हिंसा है, असंयम है, जिस तप में संतोष और पवित्रता नहीं है, वह तप तप नहीं मनुष्य के लिए ताप है । आज त्याग को हम ऐसा अनुष्ठान बनाने लग गए हैं कि हमें लगता है कि जब तक त्याग का प्रदर्शन न हो, तब तक त्याग अधूरा है । महावीर और बुद्ध से संयास लेने वाला व्यक्ति परिवार से आज्ञा लेकर भगवान के पास पहुंचता, अपना वेश उतारता और नया वेश धारण कर वानप्रस्थ, संन्यास या गुफावास स्वीकार कर लेता । अब किसी को दीक्षा लेनी हो, तो जुलूस निकलता है; उसको गहनों से लाद दिया जाता है । अब त्याग, त्याग न रहे अज्ञानमूलक अनुष्ठान हो गए। जनक तो कहते हैं कि मैं तो कर्म और अकर्म-दोनों का त्याग करके आत्म-स्थित हूं। मैंने तो अपने कर्ताभाव को प्रकृति को सौंप दिया है। अब तो प्रभु ! तू जैसा रखना चाहेगा, वैसे ही हम रह लेंगे । कृष्ण ने तो अर्जुन से युद्ध तक करवाया । व्यक्ति क्षत्रिय है, वह क्षत्रिय का कर्म करे । कर्म करना मनुष्य का दायित्व है। बस, कर्ता-भाव छूट जाए। साक्षी 95 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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