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होने वाले शरीर के सारे धर्म तुम्हारे धर्म हो जाएंगे। तब तुम कहोगे कि मुझे भूख लगी; मैं कामुक हुआ, मुझे क्रोध आया; मेरे शरीर में अमुक प्रकार की संवेदना हो रही है। यह बात हमारे बोध में उतर जाए, अंतर्दृष्टि में उतर जाए कि यह शरीर मेरा नहीं है, तो फिर आदमी कहेगा-पेट को भूख लग गई है; गला प्यासा है; शरीर में बड़ी उत्तेजना हो रही है; मन में आक्रोश और क्रोध की तरंग पैदा हो रही है। ऐसा नहीं है कि मुझे क्रोध आ रहा है। मैं तो मन का साक्षी हुआ। उत्तेजना अगर जग रही है, तो शरीर को जग रही है। जहां व्यक्ति ने यह जाना कि मैं शरीर से अलग हूं, वहां भूख भी अलग हो गई, प्यास भी अलग हो गई और कषाय भी स्वतः उससे पृथक हो गए। शरीर में व्याधि भी रही, तब भी मन में सदा-सदा समाधि रहेगी।
रामकृष्ण परमहंस, महर्षि रमण, जैन परंपरा की एक साध्वी विचक्षणश्री-ये सभी विभूतियां कैंसर से पीड़ित रहीं । जिज्ञासा जगती है कि तन में व्याधि होते हुए भी उन लोगों ने समाधि को कैसे जी लिया? इसका एकमात्र कारण यही है कि उन्होंने जाना देह अलग और मैं अलग, चेतना अलग और जड़ अलग। जैसे रथ और रथिक दोनों अलग-अलग होते हैं, वैसे ही मैं और यह काया-दोनों भिन्न हैं। जन्म के साथ शरीर जन्मा है और मृत्यु के साथ शरीर मरेगा। न मैं जन्मा, न ही मेरी मृत्यु होगी। मैं तो दोनों ही स्थितियों से अलग हूं। व्यक्ति में यह भाव जग जाए, तो साक्षित्व का उदय होगा। तब व्यक्ति देह के बीच रहते हुए भी विदेह-स्थिति को जीएगा। वह जान जाएगा कि मेरी मृत्यु काया का परिवर्तन भर है। शरीर और चेतना के बीच रहने वाला तादात्म्य ही मनुष्य के अज्ञान का आधार होता है। यह तादात्म्य टूट जाए, भीतर की वासना गिर जाए, आसक्ति मिट जाए, तो आदमी देह में रहते हुए भी देहातीत हो जाएगा।
कहते हैं कि जब सिकंदर भारत-विजय के लिए यहां आ रहा था, तो उसके गुरु डायोजनिज ने उससे कहा-सिकंदर, भारत से लौटते वक्त तुम एक संत को अपने साथ लेते आना। जब सिकंदर यहां से चलने को हुआ, तो उसे अपने गुरु की बात याद आई। उसने गांव वालों से बातचीत की, तो पता चला कि गांव के बाहर एक संत रहते हैं। सिकंदर ने सिपाहियों से कहा कि संत को पकड़ लाओ। सिपाही संत के आश्रम में पहुंचे। सिपाहियों ने कहा कि सिकंदर का आदेश है कि आप उनकी सेवा में हाजिर हों। साधु ने कहा-साधु वे होते हैं, जो किसी का आदेश नहीं मानते। सिकंदर से कह दो कि मैं गुलाम नहीं हूं, जो उसकी आज्ञाओं को मानूं। सिपाहियों ने जाकर यह बात सिकंदर को बताई। सिकंदर ने इसे अपनी तौहीन माना। एक साधु की यह मजाल कि वह मना कर दे।
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