Book Title: Na Janma Na Mrutyu
Author(s): Chandraprabhsagar
Publisher: Pustak Mahal

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Page 75
________________ अष्टावक्र सूत्र में कहते हैं 'उदासीन और निर्वेद होकर' । निर्वेद यानी वेद रहित। वेद का अर्थ होता है लिंग, जिनके भेद हैं-स्त्री-वेद, पुरुष-वेद और नपुंसक-वेद। निर्वेद का दृष्टिकोण इतना-सा ही है कि व्यक्ति के मन में रहने वाला यह भाव कि यह पुरुष, यह महिला, यह भेद गिर जाए; यह दुभांत गिर जाए। आत्मा न पुरुष होती है, न स्त्री होती है; मन और विचार न पुरुष होते हैं और न स्त्री होते हैं। स्त्री-पुरुष केवल व्यक्ति का शरीर होता है। यहां तो देह से विदेह जीने की बात है। अष्टावक्र यह प्रेरणा देना चाहते हैं कि तुम्हारे मन में रहने वाला स्त्री-पुरुष का भेद गिर जाना चाहिए। जो भेद है, वह दैहिक है। चेतना के स्तर पर दोनों समान हैं। कहते हैं-शुकदेव और उनके पिता एक गांव की ओर जा रहे थे। उनके बीच काफी फासला था। गांव से पहले एक सरोवर था, जिसमें कुछ महिलाएं नहा रही थीं। महिलाओं ने अपने वस्त्र खोलकर तट पर रख दिए थे। आगे चल रहे शुकदेव के पिता को जब अपनी ओर आते देखा, तो उन्होंने झट से अपने वस्त्र पहन लिए और एक तरफ खड़ी हो गईं। शुकदेव के पिता ने सोचा कि महिलाएं कितनी मर्यादाशील और सौम्य हैं, जो बड़े-बुजुर्गों का इतना अदब-विवेक रखती हैं। ऐसा सोचते हुए वे रास्ते पर आगे बढ़ गए। तालाब को पार कर चुके थे, तभी शुकदेव पीछे आने लगे। इस बार महिलाओं ने कोई वस्त्र नहीं पहने, न सकुचाईं और न एक तरफ खड़ी हुईं। वे निर्वस्त्र ही यथावत नहाती रहीं। शुकदेव ने आंख उठाकर भी न देखा और अपनी ही धुन में आगे बढ़ गए। शुकदेव के पिता इस घटनाक्रम को देख रहे थे। उन्होंने मन-ही-मन सोचा कि मेरी इन महिलाओं के बारे में धारणा गलत थी। ये तो बड़ी निर्लज्ज हैं। जब महिलाएं स्नान कर चुकीं, तो शुकदेव के पिता उनके पास पहुंचे। उन्होंने कहा-मेरी एक जिज्ञासा है। तुमने एक वृद्ध संत को देखकर अपने वस्त्र धारण कर लिए, जबकि एक युवा संत को देखकर तुमने इतनी निर्लज्जता दिखाई, आखिर क्यों? महिलाओं ने कहा-संतप्रवर, जो प्रश्न आपके मन में उठा है, वह तो शुकदेव के मन में उठना चाहिए था, लेकिन शुकदेव के मन में ऐसा कोई प्रश्न नहीं उठा, क्योंकि आप निर्वेद न थे। शुकदेव निर्वेद है, उनके लिए स्त्री और पुरुष में कोई भेद नहीं है। उनके लिए तो हम स्त्री होते हुए भी स्त्री नहीं हैं। जो व्यक्ति अपनी दृष्टि में स्त्री और पुरुष के भेद को गिरा देता है, केवल आत्मवत्-दृष्टिकोण रखता है, वही व्यक्ति शुकदेव होता है, निर्वेद होता है। अष्टावक्र कहते हैं-'इस प्रकार निश्चित जानकर संसार में उदासीन और निर्वेद होकर अव्रती और त्यागपरायण हो।' बात थोड़ी-सी विरोधाभास भरी लगेगी, क्योंकि वे अवती होने की बात कह रहे हैं और त्यागपरायण होने पर भी बल दे रहे हैं। 74 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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