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क्या आपने अपने मन को कभी पढ़ा है? आदमी बाहर से तो व्रत ले लेता है, लेकिन त्यागपरायण नहीं हो पाता । त्याग तो व्यक्ति के ज्ञान का प्रकाश है, ज्ञान की परछाईं है। त्याग ज्ञान का सहज परिणाम है। आदमी ने सुन ली किसी संत की बात, प्रेरित हो गए और नियम ले लिया, व्रती हो गए। होता यह है कि आदमी बाहर से तो व्रत ले लेता है, पर भीतर से वह विरत नहीं हो पाता। नतीजतन वह खुद ही नियमों में बंध जाता है । व्यक्ति नियमों में रहे, यह अच्छी बात है, पर उनमें बंध जाना अपने आप में बंधन ही है। आदमी जीए, सजगता से जीए । जब-जिसकी-जो जरूरत पड़े, जब-जैसी - जो चीज प्राप्त हो जाए, तब - वैसा - उस रूप में जी लेना ही सिद्धि को प्राप्त कर लेने का महामंत्र हैं । आदमी त्यागपरायण हो, पर बाहर से नियमों-प्रत्याख्यानों को लेने का आग्रह न रखे, वरन् त्याग भीतर में हो, अंतर्दृष्टि में त्याग हो । अंतस् का परिवर्तन ही जीवन का वास्तविक परिवर्तन है ।
अगला सूत्र है
कोऽसौ कालो वयः किं वा द्वन्द्वानि नो नृणामृ । तान्युपेक्ष्य यथा प्राप्तवर्ती सिद्धिमवाप्नुयात् ॥
अर्थात वह कौन-सा काल है, कौन-सी अवस्था है, जिसमें मनुष्य के द्वंद्व न हों, इसलिए तू उनकी उपेक्षा कर, यथाप्राप्य वस्तुओं में संतोष कर । संतोष करने वाला व्यक्ति ही सिद्धि को प्राप्त होता है।
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अष्टावक्र कहते हैं - वह कौन-सा काल रहा, जब व्यक्ति के साथ द्वंद्व न रहा हो? ऐसा कोई भी युग नहीं रहा, जिसमें सुख और दुख न हों, पाप और पुण्य न हों, उतार और चढ़ाव न हों। अगर ये सब न हों, तो 'रामायण' का जन्म ही नहीं होता। अगर दुनिया में द्वंद्व न होते, मानसिक उठापटक न होती, तो 'महाभारत' की रचना ही नहीं हो पाती । त्रेता, द्वापर, कलियुग सभी कालखंड एक समान हैं। कोई भी युग अच्छा और बुरा नहीं होता । हमारी अपनी ही दृष्टि उसे 'अच्छा' या 'बुरा' करार देती है । सभी युगों की अपनी-अपनी खासियतें, अपनी-अपनी खामियां रहीं। राम मर्यादा पुरुषोत्तम कहलाए, लेकिन उनकी मर्यादा में भी कैसे-कैसे द्वंद्व रहे। जिस सीता ने अशोक वाटिका में रहकर राम के अतिरिक्त किसी भी पुरुष की वांछा नहीं की, उस सीता को धोबी की एक बात पर राम ने त्याग कर दिया ।
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ता के राम की आंखों में, आंसू का निर्झर पलता था । सीता का आंचल इसीलिए, करुणा से भीगा लगता था ।
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