Book Title: Na Janma Na Mrutyu
Author(s): Chandraprabhsagar
Publisher: Pustak Mahal

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Page 81
________________ स्थूलिभद्र अपने गुरु के पास पहुंचे। उन्होंने गुरु से यह अनुरोध किया कि मैं अपना अगला प्रवास कोशा वेश्या के यहां रखूगा। यह बात सुनकर उनके गुरु-भाई चौंक पड़े। वे सोचने लगे कि यह संत हो गया है, लेकिन इसके मन में तो अभी भी वही वेश्या, वही कोशा बसी हुई है। स्थूलिभद्र की बात पर गुरु मुस्कराए और कहा-तुम जहां चाहो चातुर्मास करो, पर ध्यान रखना यह चातुर्मास तुम्हारे जीवन की, तुम्हारे वैराग्य की कसौटी होगा। __स्थूलिभद्र कोशा वेश्या के घर पहुंचे। कोशा की खुशी का ठिकाना न रहा। कोशा ने प्रवास की सहज स्वीकृति दे दी। प्रवास-काल में कोशा जितने तरीकों से रिझा सकती थी, उसने रिझाया, पर स्थूलिभद्र अटल और अडिग बने रहे। जिसने जीता है काम को, वही तो संत है। राग और विराग में अंतर्-संघर्ष हुआ और कल तक जो कोशा वेश्या थी, वह स्थूलिभद्र की शिष्या और श्राविका बन गई, उसने पावन पथ को अंगीकार कर लिया। जिसने काम को जीता, उसने त्रैलोक्य पर विजय पा ली और जो काम से हार गया, वह सारे संसार पर विजय पाने के बावजूद परास्त ही कहलाएगा। इसी कारण तो अष्टावक्र चाहते हैं कि हर मुमुक्षु आत्मा निष्काम मार्ग की ओर अपने कदम बढ़ाए। आखिर जीवन में तुम कब तक काम का सेवन करते रहोगे। तुम्हारी पीढ़ियां-दर-पीढ़ियां बीत गईं इस काम की आसक्ति के उलझाव में। तुम चाहते हो कि मेरा जन्म गिर जाए, मेरी मृत्यु मिट जाए, तो निष्काम बनो। ___काम वैरी है, और अर्थ-अनर्थ से भरा है। अर्थ-अनर्थ की खान है, अर्थ की आसक्ति अनर्थों को जन्म देती है। अर्थ मूल्यवान है, पर अर्थ के साथ अनर्थ छाया की तरह चले आते हैं। इसी धन के कारण बाप की लाश बाद में उठती है और पहले बंटवारा होता है। आदमी की मूर्छा बहुत गहरी है। धन संग्रह के लिए नहीं है, वह तो उपयोग के लिए है। जो धन का उपयोग कर जाता है, वही सही मायनों में धनवान है। जो उपयोग नहीं कर पाया, छोड़कर चला गया, वह सांप-बिच्छू बनकर उसी धन की रक्षा के लिए फिर-फिर जन्म लेगा। जितना धन को जुटाने में मशक्कत की, उसे लुटाने में भी उतनी ही तत्परता, उतना ही साहस रखो। कल की व्यवस्था के बारे में मत सोचो। प्रकृति की व्यवस्थाएं इतनी अनूठी हैं कि वह 'चींटी को कण और हाथी को मण' सहज भाव से देती है। किसी आदमी के पांच कन्याएं हैं, तो वे धन के अभाव में अविवाहित नहीं रह पाएंगी। कब-कौन-कहां निमित्त बन जाएगा, पता ही नहीं चलेगा। आदमी के पास ज्यों-ज्यों पैसा बढ़ता है, वह परमेश्वर से त्यों-त्यों दूर होता जाता है। लोभ बढ़ता जाता है। लोभ से ही परिग्रह पल्लवित होता है। परिग्रह 80 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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