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ओ रे मन, अब तो विश्राम कर
नवीय चेतना के तीन रूप हैं। एक है जड़ता; दूसरा है अर्द्ध-मूविस्था और । तीसरा है परिपूर्ण सजगता । जड़ पुरुष वह है-जिसे न तो अपने अंदर प्रकाश की जानकारी होती है, न जिसका व्यवहार समाज के अनुकूल है । अर्द्धमूछित व्यक्ति वह है-जिसे अपने अंदर प्रकाश की जानकारी है, मगर संसार के मोह में डूबा है, अंदर जाने का प्रयास ही नहीं करता। पूर्ण सजग व्यक्ति ही अंदर के प्रकाश में स्थिर होकर वासनामुक्त भाव से संसार का भोग करता है।
कुछ लोग ऐसे होते हैं, जो अंधकार में जन्म लेते हैं और अपने जीवन को भी अंधकार की ओर ले जाते हैं। कुछ लोग ऐसे होते हैं, जो पैदा तो प्रकाश में होते हैं, किंतु उनका जीवन अंधकार की ओर जाता है। तीसरा सबसे महत्त्वपूर्ण पहलू यह है कि व्यक्ति प्रकाश में ही पैदा होता है और प्रकाश में ही अपना जीवन बढ़ाता हैं। महर्षि अष्टावक्र व्यक्ति के उस ज्योतिर्मय व्यक्तित्व पर विश्वास रखते हैं, जहां व्यक्ति का आंतरिक पहलू भी प्रकाशित हो और बाह्य पहलू भी उज्जवल हो; आदमी का जन्म भी अमृत के रूप में हो और उसका जीवन भी अमृत हो। आज के सूत्रों में महर्षि अष्टावक्र व्यक्ति की व्यवहार-शुद्धि के लिए, व्यक्ति की अनासक्ति और वीतरागता के लिए, चैतन्य-विश्रान्ति के लिए कुछ संकेत देना चाहते हैं, कुछ रश्मियां बिखेरना चाहते हैं। सूत्र है
विहाय वैरिणं कामं अर्थं चानर्थसंकुलम्।
धर्ममप्ये-तयोर्हेतुं, सर्वत्रानादरं कुरु ॥ अर्थात वैरीरूप काम को, अर्थ को और मन को संकीर्ण बनाने वाले अन्य ज्ञानसाधनों को त्याग दे तथा इन सभी के कारण रूप धर्म का भी सभी स्थितियों में अनादर ही कर।
अपने इस सूत्र में अष्टावक्र ने बड़ी क्रांतिकारी बात कही है। कोई भी धार्मिक ग्रंथ, कोई भी आध्यात्मिक वाणी अर्थ और काम को ही त्यागने की बात कहते हैं, लेकिन अष्टावक्र तो अपनी ओर से यह उद्घोषणा करते हैं कि व्यक्ति
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