Book Title: Na Janma Na Mrutyu
Author(s): Chandraprabhsagar
Publisher: Pustak Mahal

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Page 73
________________ केकड़े की पीठ पर सवार होकर बिच्छू सैर को निकला। जब वे मझधार में पहुंचे, तो कहीं से एक लहर आई और उन दोनों को तरंगित कर दिया। उसी तरंग के साथ बिच्छू में भीतर तरंग उठी और उसने सट से केकड़े को डंक मार दिया। केकड़ा कराह उठा। वे दोनों डूबने लगे, क्योंकि केकड़े को जहर चढ़ चुका था और बिच्छू तैरना नहीं जानता था। केकड़े ने डूबते-डूबते ही पूछा-दोस्त, तुम्हारे उस तर्क का क्या हुआ? बिच्छू ने कांपती सांसों से कहा-तुमने केवल तर्क को ही सुना है, प्राणी के स्वभाव को नहीं जाना। वे ज्ञान की बातें थीं और यह मेरा स्वभाव है। जब तक व्यक्ति की अंतर्दृष्टि में ही जहर भरा हुआ है, बाहर से चाहे जितनी चरित्रता और सच्चरित्रता की बातें कर ली जाएं, सब राख के ऊपर लीपा पोती है। आदमी बाहर के आचार-व्यवहार के द्वारा अपनी अंतर्दृष्टि, अंतरात्मा पर जमी धूलिकण की परतों को जन्म-जन्मांतर और मजबूत करता जाता है। वे परतें अंततः सख्त पत्थर में तबदील हो जाती हैं । अष्टावक्र का प्रयास केवल अंतरात्मा का स्वामी बनाना ही नहीं है, वरन् व्यक्ति के भीतर जमे हुए धूलिकण हट जाएं, प्रकाश में घुल-घुलकर आ रहे धूलिकणों के विजातीय तत्त्व छट जाएं। ये उद्देश्य है अष्टावक्र का। आत्मज्ञान के मार्ग पर जिस त्याग और तप की, जिस विशिष्टता की दरकार है, उन्हीं को समेटे आज अष्टावक्र के कुछ सूत्र हम लेंगे। सूत्र है कृताकृते च द्वन्द्वानि, कदा शांतानि कस्य वा। एवं ज्ञात्वेह निर्वेदाद्भव त्यागपरोऽव्रती ॥ अर्थात किया और अनकिया कर्म और द्वंद्व कब-किसके शांत हुए हैं? इस प्रकार निश्चित जानकर संसार में उदासीन और निर्वेद होकर अव्रती और त्यागपरायण हो। ___ हर मुमुक्षु आत्मा को जिसके अंतःकरण में आत्मज्ञान की अभीप्सा पल रही है, यह संबोधन है। यह सामान्य संबोधन नहीं है, वरन् संबोधि-सूत्र है। अष्टावक्र कहते हैं कि कर्म चाहे किया हुआ हो या अनकिया हो, द्वंद्व कब-किसका शांत हुआ है? केवल यह मत समझना कि जो कर्म तुम करते हो, वे ही कर्म हैं। बहुत सारे कर्म ऐसे होते हैं, जो आदमी करता नहीं है, फिर भी कर्म का भार उस पर चढ़ता है। आदमी शरीर के द्वारा उतने कर्म नहीं करता, जितने मन और विचारों के द्वारा करता है। वह वास्तविक जीवन में एक हत्या भी नहीं करता, मगर मन में, विचारों में वह कितनी-कितनी बार हत्याएं कर बैठता है। मन में की गई यह हत्या, यह हिंसा ही पाप हैं, यही पाप असल जिंदगी में दोहराया जाए, तो वही अपराध बन जाता है, जिसकी सजा के लिए अदालतें खड़ी की गई हैं। पाप छिपा हुआ अपराध है और अपराध प्रकट हुआ पाप है। अच्छा होगा व्यक्ति अपने अंतर्मन की ओर सजगता से कदम बढ़ाए, क्योंकि वह हरदम मन के पापों में ही जीता है। 72 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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