Book Title: Na Janma Na Mrutyu
Author(s): Chandraprabhsagar
Publisher: Pustak Mahal

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Page 43
________________ भोग भी, योग भी यात्म-स्मरण से बढ़कर कोई पुण्य नहीं और आत्म-विस्मरण से बढ़कर कोई जापाप नहीं; आत्मज्ञान से बढ़कर कोई उपलब्धि नहीं और आत्म-अज्ञान से बढ़कर कोई दारिद्रय नहीं। अपने आपको पाना जीवन की सबसे बड़ी समृद्धि है, अपने आपको खो बैठना जीवन की सबसे बड़ी गरीबी है। जिस किसी ने दुर्जेय संग्राम के हजारों योद्धाओं को जीता हो और अगर वही विजेता अपने आपसे हार चुका हो, तो उसकी जीत को पराजय ही कहा जाएगा। आत्म-विजय से बढ़कर कोई विजय नहीं है। अपने चित्त की वृत्तियों के प्रति होने वाला सम्यक् जागरण जीवन की विजय का परम सूत्र है। सद्प्रवृत्तियों में स्थित हमारी अपनी आत्मा ही हमारी सबसे प्यारी मित्र है और दुष्प्रवृत्तियों की ओर गतिशील हमारी अपनी आत्मा ही हमारी सबसे बड़ी शत्रु है। मनुष्य के एक ओर मित्र हैं और दूसरे पार्श्व में शत्रु हैं। दुनिया में मित्र के निमित्त कोई और होते हैं तथा शत्रु के निमित्त भी कोई और होते हैं, लेकिन अष्टावक्र तुम्हें जिस धरातल पर ले जाना चाहते हैं, उस पर तुम्ही तुम्हारे मित्र हो और तुम्ही तुम्हारे शत्रु; तुम्ही तुम्हारे जीवन का स्वर्ग बनाते हो और तुम्हीं तुम्हारे जीवन का नरक। तुम्हारे जीवन की मुक्ति की आधारशिलाएं तुम्ही हो। अष्टावक्र का दिव्य सान्निध्य मिला और जनक ने जाना-मैं कौन हूं; अब तक मेरे जीवन में जन्म-जन्मांतर में कौन-सी विडंबनाएं मेरे साथ रहीं? जनक ने अपने बंधन और मोक्ष को जान लिया है, आत्मज्ञान की संपदा को उपलब्ध कर लिया है, तो अष्टावक्र यह भी पुष्टि कर लेना चाहते हैं कि कहीं राख में कोई अंगारा तो दबा हुआ नहीं रह गया है, क्योंकि अकसर ऐसा होता है कि ऊपर-ऊपर दिखाई देने वाली राख में धधकते अंगारे दबे रह जाते हैं और जिस क्षण हमारी नियति का, हमारी कर्म-प्रकृति का कोई झोंका आता है, तो राख उड़ जाती है और वे सुलग पड़ते हैं। ___ एक आत्मज्ञानी व्यक्ति भी अंगारों की धधक से सुलग सकता है, इसीलिए अष्टावक्र ने पड़ताल प्रारंभ कर दी है। वे खोज रहे हैं कि कहीं तुम्हारे मन में 42 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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