________________
सदा-सदा स्मरण रखना कि तुम जिसके लिए मरते हो, संभव है, वह तुमसे विरक्त हो।
जैसी ही जीवंत प्रतीति होती है, अनुभूति होती है, रूपांतरण स्वतः घटित होता है। रूपांतरण घटित न हो, परिवर्तन न आए, तो समझो वह 'अनुभूति' छलावा ही थी। अगर जीवन में वैराग्य न आया, तो बंदा माटी में जन्मा, माटी पर ही केंद्रित रहा और अंततः उसी माटी में समा गया। जिसकी दृष्टि जग गई, जिसकी आंख खुल गई, वह ज्योति पर स्थिर हो जाता है, ज्योति-पथ पर अपने कदम बढ़ा देता है। तब राजा भर्तृहरि जीवन में राजर्षि भर्तृहरि हो जाते हैं; तब फिर से कोई जनक यह उद्घोषणा कर देते हैं कि भोग-लीलाओं के बीच खेलते हुए भी मैं वैसे ही निर्लिप्त रहता हूं, जैसे कीचड़ में खिला कोई कमल।
अष्टावक्र स्थूल को तो गिरा ही चुके हैं, अब सूक्ष्म को भी गिरा देना चाहते हैं। वे कहते हैं
न ते संगोऽस्ति केनापि, किं शुद्धस्त्यक्तु मिच्छसि।
संघातविलयं कुर्वन्नेवमेव लयं व्रज ॥ अर्थात तेरा किसी से संग नहीं है, तू शुद्ध है, फिर तू किसको त्यागना चाहता है? तू देहाभिमान का त्याग कर, मोक्ष को प्राप्त हो।
अष्टावक्र कहते हैं कि जब तुम भोग-लीलाओं के बीच खेलते हुए भी उनसे अलिप्त खड़े हो, तो वत्स! तुम्हारा किसी से भी संग नहीं है, किसी से भी गठजोड़ नहीं है। ये जो संग-साथ तुम देख रहे हो, ये संग-साथ तो बस, जब तक हैं, तब तक है। सारे संग-साथ सांयोगिक हैं। हम संयोग को संयोग भर मान लें, तो तत्क्षण तुम अपने आपको एकत्व के द्वार पर खड़ा पाओगे। यही स्थिति तो बुद्धत्त्व है। बुद्ध जिस दिन इस सत्य को समझ गए, उनके सारे बंधन खुद-ब-खुद छूट गए।
वे स्याह अंधेरे में अपनी पत्नी और पुत्र को सोते हुए छोड़कर, राजमहलों को छोड़कर निकल पड़े। जीवन में जब ज्ञान जग चुका और त्याग घटित हो गया, तो आदमी आगे-पीछे की नहीं विचारता। चिंता छूट गई, चिंतन प्रकट हो गया। अष्टावक्र जन-जन को यही संदेश देना चाहते हैं कि तू त्याग करना ही चाहता है, तो देह का, देह के अभिमान का त्याग कर, ताकि त्याग भी सार्थक और गौरवान्वित हो सके। जिसका देह का अभिमान छूट गया, राग छूट गया, उसके मन में व्याधि रहते हुए भी समाधि रहती है। तन चाहे जिस द्वार से गुजरता चला जाए, मगर उसकी साधना और समाधि को खंडित नहीं किया जा सकता। वह मंदिर के अखंड दीपक की तरह ज्योतिर्मय रहता है।
51
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org