Book Title: Na Janma Na Mrutyu
Author(s): Chandraprabhsagar
Publisher: Pustak Mahal

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Page 57
________________ वही पुष्प हमारे सिर का शृंगार हो सकेगा, हमारी आंखों का आकर्षण हो सकेगा, हमारे हृदय में स्थान पा सकेगा, जिसमें अपनी कोई सुवास है, जिसकी अपनी प्राणवत्ता है। कागज के फूलों से परहेज रखते हुए असली फूलों की तरफ अपनी नजर उठाओ, ताकि चेतना का नया गीत फूट सके, नया अध्याय आरंभ हो सके, चेतना के संसार का सृजन हो सके। मनुष्य के लिए उसका जीवन ही भारतभूत हो गया है। प्राणों की उसे खबर नहीं है, प्रकाश का उसे पता नहीं है, सुवास का कोई संदेश नहीं है। मनुष्य ने अपने आपको बाहर के ज्ञान से, शिक्षाओं से, पांडित्य से इतना अधिक भर लिया है कि आदमी के पास जीवन के ज्ञान के नाम पर केवल कल्पनाएं हैं, कोरी धारणाएं, स्मृतियां और चिंताएं हैं। जीवन के प्रति प्यास और अभीप्सा किसी में नहीं है, वह अखंड जीवन, जहां न जन्म है, न मृत्यु है। जहां केवल जीवन है। जो आज जीवित है, वह मृत्यु के द्वार से गुजरने पर भी जीवित रहेगा। बीते हुए की याद करके कोई बीते हुए को लौटाकर नहीं ला सकता, भविष्य की कल्पनाएं करके उसे आज में परिणित नहीं कर सकता। जैसा है, वैसा जीओ। न अतीत की चिंता हो और न भविष्य की कल्पना। जहां आदमी केवल वर्तमान का होकर रहता है, वहां जीवन में अंतरात्मा प्रवर्तमान रहती है। साधु तो बहुत हो जाते हैं, लेकिन उनमें साधुता के, साधना के फल नहीं खिल पाते। वे कहलाने भर को साधु हैं। उनके जीवन से साधना पूर्णतः गायब है। फिर तो साधु एक स्वांग हो गया, बहुरूपिया हो गया; फिर तो धर्म भी प्रदर्शन का रूप ले बैठेगा, प्रलोभन बन जाएगा। धर्म व्यक्ति की धारणा नहीं बने, वह व्यक्ति-व्यक्ति को धारण करने वाला बने। धर्म में न प्रलोभन हो, न प्रदर्शन हो, केवल शुद्धता की बात हो। धर्म के मर्म की ओर वे ही बढ़ पाते हैं, जो अंधेरे में खड़े हुए प्रकाश के लिए प्रतीक्षारत हैं। इस प्रांगण में भी सुनने के लिए वे लोग ही आ रहे हैं, जो यथार्थ में यह अनुभव करते हैं कि जीवन में कहीं अंधकार है। जहां साधना, योग और आचरण न होगा, वहां केवल नौटंकी और मजमेबाजी होगी। जीवन भी रामलीला का मात्र अभिनय होगा, राम को आचरण में उतारने का प्रयास नहीं होगा। कोई राम के वेश में होगा, कोई रावण की शक्ल में । धर्म अभिनय अथवा अभिनय का उपकरण नहीं है। वह तो आदमी को अनंत आकाश की ओर ले जाता है; उस मौलिक आत्मस्वरूप की ओर ले जाता है, जहां कि अष्टावक्र हम सबको ले जाने के आकांक्षी हैं। यह मनुष्य की बहुत बड़ी विडंबना रही है कि उसका अवतार आकाश से हुआ है, पर उसका स्वयं का आकाश उसके हाथ से 56 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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