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अगला सूत्र है
मय्यनन्तमहाम्भोधौ, जगद् वीचिः स्वभावतः।
उदेतु वास्तमायातु, न मे वृद्धिः न च क्षति ॥ जनक कहते हैं-मुझ अंतहीन महासमुद्र में जगतरूपी लहर स्वभाव से उदय हो, चाहे मिटे। मेरी न वृद्धि है, न हानि।
जनक कहते हैं कि 'मुझ अंतहीन महासमुद्र में'। कोई पता थोड़े ही है कि तुम्हारा महासमुद्र कितना विस्तृत और विराट है। भले ही आपको लगता होगा कि आपका शरीर पांच या छः फीट का है, पर हकीकत यह है कि इसका वास्तविक विस्तार आंकना मुश्किल है। अपने मुंह से निकला एक-एक शब्द अनंत में व्याप्त हो रहा है। यह मत सोचना कि मैं जो बोल रहा हूं, वह इस प्रांगण में ही या आपके अंतःकरण तक ही यह बात पहुंच रही है। ये शब्द अखिल ब्रह्मांड तक पहुंच रहे हैं। आप टेलीविजन देखते हैं, जो तरंगों के माध्यम से ही संचालित होता है। ये तरंगें अखिल ब्रह्मांड तक प्रसारित होती हैं। इस रूप में तुम शब्द और मन के द्वारा महासमुद्र हो; तुम एक पल में यहां हो तो अगले ही पल दुनिया के उस छोर पर।
स्वाभाविक है कि एक ज्ञानी व्यक्ति के भीतर भी जगत की कोई तरंग उठ जाए। आत्मज्ञान तो बहुत भीतर की घटना है। चित्त की वृत्ति, तरंग तो फिर भी उठ सकती है, इसीलिए मैंने कहा कि आत्मज्ञान पाना आदमी के लिए सरल है, चित्त पर जमी हुई वृत्ति की परतों को, संस्कारों की चट्टानों को हटाना ज्यादा कठिन है। आत्मज्ञान उपलब्ध हो जाए और चित्त की शुद्धि न हो, तो जगतरूपी लहर के पैदा होने की संभावनाएं प्रबल रहती हैं।
जिसने जाना है स्वयं को, स्वयं में समाहित त्रैकालिक सत्य को, वह जगत् की तरंग का द्रष्टा-भर रहता है। वह देह को, देह के धर्म को देखता है, मन को, मन के धर्म को देखता है, पर वह केवल द्रष्टा ही बना रहता है। देह और देह के धर्म अपना काम करते हैं और द्रष्टा हर हाल में अलिप्त बना रहता है।
जनक के जीवन की एक घटना है। कहते हैं-ऋषि याज्ञवल्क्य अपना प्रवचन शुरू करने वाले थे। सभागृह खचाखच भर गया था, लेकिन सम्राट जनक सभा में उपस्थित नहीं हो पाए थे। लोगों में कानाफूसी होने लगी कि महर्षि हो गए, तो क्या हुआ, राजा की जरूरत तो इन्हें भी है। कानाफूसी याज्ञवल्क्य के अंतर्केन्द्र में प्रतिबिंबित हुई। थोड़ी ही देर में जनक आ गए। तब महर्षि याज्ञवल्क्य ने प्रवचन प्रारंभ किया। प्रवचन पूरा ही नहीं हुआ था कि तभी एक घटना घटी, एक माया रची गई। कोई व्यक्ति शहर से दौड़ता हुआ आया और कहने लगा कि मिथिलानगरी
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