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संभवतः अध्यात्म का इससे सूक्ष्म ज्ञान और कोई न होगा, जहां कहा गया है कि मैं आकाश की भांति अनंत हूं और यह सारा संसार प्रकृतिजन्य है। सारा संसार बनता है, मिटता है, पर मैं न बनता हूं, न मिटता हूं। मैं तो उस आकाश की भांति अनंत हूं, जिसमें न जाने कितने पंछी उड़ते हैं, जाने कितने चांद और सितारे दमकते हैं, न जाने कितनी बिजलियां चमकती हैं, बादल गरजते हैं, फिर भी मुझमें कुछ भी नहीं होता। मैं तो मिटने और बनने के कालचक्र से अलिप्त खड़ा हूं। आप भी उसी आकाश पर नजरें जमाइए, एकटक देखते जाइए। पलकें अपने आप बंद होती चली जाएंगी और जिस आकाश को तुम बाहर देख रहे थे, वही भीतर दिखाई देने लगता है; आकाश हमारे भीतर घटित होने लगता है। भीतर के शून्य आकाश को उपलब्ध हो जाना, स्वयं को उपलब्ध हो जाना है।
बनना और मिटना तो आकारों का होता है, शरीर के पर्यायों का होता है। आकार के भीतर रहने वाले शून्य-आकाश को अगर तुम ढूंढ़ लेते हो, तो आकार गिर जाता है और निराकार नाच उठता है। तब निराकार के साथ हम ऐसे एकाकार हो जाते हैं, जैसे आंख और आकाश एकाकार-एकलय हो रहे हैं। तब बाहर भी आकाश है और भीतर भी आकाश। फलतः आकाश, आकाश में समा जाता है; ज्योति, ज्योति में तद्रूप हो जाती है। तब जीवन ज्योतिर्मय हो उठता है; मन की अराजकता-पागलपन स्वतः शांत और तिरोहित हो जाता है। तब तुम कमल की भांति अनासक्त-निर्लिप्त हो जाते हो। तुम संसार में रहते हो, जीते हो, मगर अपने आपको उससे ऐसे ही अलिप्त खड़ा पाओगे, जैसे सागर के किनारे खड़ा पथिक, दलदल से अलिप्त अरविंद।
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