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त्याग हो देह-भाव का
मनुष्य एक दीया है, एक ऐसा दीया, जिसमें माटी भी है और ज्योति भी। मनुष्य
। स्वयं एक मंदिर है, एक ऐसा मंदिर, जिसमें पूजागृह भी है और उसका देवता भी। मनुष्य के लिए एक ओर संसार का मार्ग है, दूसरी ओर निर्वाण का मार्ग। जिससे माटी के दीये में केवल माटी दिखाई देती है, उसे संसार के नाम पर केवल माटी ही हाथ लगती है। जिसे केवल मंदिर की कोरनी की सुंदरता ही दिखाई देती है, उसके हाथ मंदिर के नाम पर केवल गारे-मिट्टी से बना ‘मंदिर' ही लगता है। जिसकी अंतर्दृष्टि ज्योति पर जाकर केंद्रित हो जाती है, उसका जीवन अपने आप ही ज्योतिर्मय हो जाता है। जिसकी आंख मंदिर के देवता पर जाकर केंद्रित हो जाती है, उसके जीवन में देवत्व अपने आप अवतरित हो जाता है।
अष्टावक्र जैसे महर्षियों को सुनना हमारे लिए तभी सार्थक हो सकता है, जब हमारे भीतर ज्योति की एक अभीप्सा जग जाए, हमारे भीतर देवत्व की प्यास प्रबल हो उठे, अनंत आकाश को देखने की मुमुक्षा जाग्रत हो जाए। ___मैंने माटी को माटी होते देखा है और ज्योति को परम ज्योति में विलीन होते पाया है। इन आंखों ने मिट्टी से बनते दीये को भी देखा है और मिट्टी से बनती काया को भी निहारा है । मिट्टी, मिट्टी से बनी और उसी में समा गई। इस बनने-मिटने के पहले और बाद में जो ध्रुवत्व रहा, जो शाश्वत और निस्सीम रहा, उसे भी अंतस्-चक्षुओं ने निरखा है। यह देह पानी का बुलबुला है, जो बना, थोड़ी देर पानी पर रहा और फिर उसी में सिमट गया। लोग भले ही संसार में बंद मुट्ठी लेकर आते हैं, लेकिन जाते वक्त हाथ पसारे हुए ही जाते हैं, यह जतलाने के लिए कि माटी केवल माटी के लिए ही जी पाई। वह माटी धन्य हो जाती है, जो थोड़ी-सी भी ध्रुव के लिए जी जाती है, आत्मप्रज्ञ होने के लिए स्वयं को बलिदान कर जाती है। माटी की तभी सार्थकता है, जब यह बिखरने से पहले मानवता के काम आ जाए, इसके रक्त की एक बूंद किसी की जान बख्श दे।
__ भोग-लीला मनुष्य के अज्ञान की परिणति है और त्याग उसके ज्ञान का सहज परिणाम। जहां अंतर्ज्ञान घटित होता है, वहां त्याग अपने आप चला आता है।
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