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जनक कहते हैं- उस पद को जानने वाले के अंतःकरण का स्पर्श पुण्य और पाप के साथ वैसे ही नहीं हो सकता, जैसे आकाश का संबंध धुएं के साथ नहीं हो सकता ।
आत्मज्ञानी व्यक्ति का केवल धन, काम या भोग - परिभोग से ही कोई संबंध नहीं होता, वरन् उसका तो पाप और पुण्य से भी कोई नाता नहीं । ठीक उसी प्रकार जैसे धुआं आकाश की ओर उठता है, तो लगता है कि आकाश और धुंआ एक हो रहे हैं, लेकिन वस्तुतः उनके बीच कोई संबंध नहीं होता । जनक उसी आकाश की भांति अनंत और निस्पृह हैं, जिसमें अब चाहे जैसी बदलियां चलें, चाहे जैसी बिजलियां गरजें, कोई प्रभाव नहीं । ऐसी ही अवस्था इस मुमुक्षु आत्मा की है, जिसका न पाप के साथ संबंध है और न ही पुण्य के साथ ।
मनुष्य के लिए पाप ही बंधन नहीं है, पुण्य भी बंधन है। महावीर ने कभी अपने शिष्यों से कहा था कि सांकल चाहे लोहे की हो, चाहे सोने की । गले में डालोगे, तो दोनों ही फांसी का फंदा बनेंगी। किसी से धन छीनकर किया गया पाप और किसी को दान देकर कमाया गया पुण्य, दोनों जन्म-मरण के बंधन का कारण बनते हैं ।
अपरिग्रह की भावना से किया गया दान कभी पुण्य नहीं होगा, वह तो परिग्रह-मुक्ति का शुद्ध आचरण ही है। दान हमेशा अहम् भाव को पुष्ट करता है, कर्ता - भाव को बढ़ाता है। दान हमेशा एक को बड़ा, एक को छोटा दिखाता है । औरों के लिए अपने मन में उदारता लाओ, सहयोग की भावना लाओ, दान की भावना कतई नहीं। मनुष्य मनुष्य को कभी दान नहीं दे सकता, वह सहयोग कर सकता है। मनुष्य परमात्मा को कभी दान नहीं दे सकता। वह परमात्मा और गुरु के प्रति केवल समर्पण कर सकता है । समर्पण और दान में बड़ा फर्क है । दान में कर्ता-भाव रहता है और समर्पण में कर्ता-भाव मिटता है, इसलिए दान नहीं, सहयोग और समर्पण की भावना हमारे मन में आत्मसात् हो ।
माना हम कर्ण बनकर अपना जीवन कुर्बान नहीं कर सकते, राजा शिवि बनकर अपनी जंघा का मांस काटकर कबूतर की जान नहीं बचा सकते, मगर हम द्वार पर आए याचक की झोली तो भर सकते हैं; गरीब पड़ोसी के बच्चे की साक्षरता का इंतजाम तो कर सकते हैं
सबको दो, सबको लुटाओ, मगर देकर भूल जाओ । पाप को तो जीवन से हटा ही दो, पुण्य को भी दरिया में डाल दो। मैं तो दे रहा हूं, क्योंकि देने में आनंद आता है। जहां देने में आनंद है, वहां कौन-सा पाप, कौन-सा पुण्य ! वहां आदमी पाप और पुण्यों से वैसे ही निर्लिप्त है, जैसे आकाश बादलों से निस्पृह और निर्लिप्त
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