Book Title: Na Janma Na Mrutyu
Author(s): Chandraprabhsagar
Publisher: Pustak Mahal

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Page 47
________________ जो होना होता है, वह होगा। न तो तुम बीते की चिंता करो और न ही आने वाली सात पीढ़ियों का चिंतन । आज जितना, जो कुछ मिला है, उसे सहजता से जीयो, आनंद और बोध से जीयो । प्रकृति के घर की व्यवस्थाएं इतनी सशक्त हैं कि तुम्हारे जन्म से पहले जीवन की व्यवस्थाएं पूर्ण हो जाती हैं; कोख से धरती पर पांव पड़ने से पहले मां की छाती में दूध तैयार है । फिर किस बात की चिंता ! हमारा जीवन तो आईने की तरह होना चाहिए कि जब उसके सामने गए, तो उसने हमारा चेहरा हमें दिखा दिया और जैसे ही उसके सामने से हटे कि आईना पहले की तरह साफ । एक मशहूर संत हुए-तानज़ेन । तानज़ेन और उनके गुरु दोनों कहीं से लौट रहे थे कि तभी जोरों की बारिश हुई। रास्ता कीचड़ से भर गया, मगर वे चलते रहे। वे नदी के किनारे पहुंचे। वे नदी को पार करने वाले ही थे कि तभी एक युवती की आवाज आई। युवती ने पास आकर कहा- महानुभाव, बरसात का मौसम है। नदी में पानी बढ़ चला है । मैं अकेली हूं । डर रही हूं कि कहीं नदी में डूब न जाऊं । क्यों न आप मेरा हाथ थामकर मुझे नदी पार करा दें। गुरु ने कहा- नहीं - नहीं, हम ऐसा नहीं कर सकते। हम किसी स्त्री का स्पर्श नहीं करते। गुरु तो चल पड़े, मगर तानज़ेन वहीं रुक गए। तानज़ेन ने युवती से कहा - आओ, तुम परेशान मत होओ। चलो, मैं तुम्हें पार लगा देता हूं। उसने उसका हाथ पकड़कर नदी पार करा दी। दोनों अपने गंतव्य की ओर चल पड़े । तानज़ेन और उसके गुरु अपने स्थान पर पहुंचे और सो गए, लेकिन गुरु को रात को नींद नहीं आई। अगले दिन गुरु ने शिष्य को टोका - तुम्हें मालूम है कि हम स्त्री का स्पर्श नहीं करते। इसके बावजूद तुमने उसे नदी से पार कैसे लगा दिया ? तानज़ेन मुस्कराया और कहा- ओह, तो आप उस युवती की बात कर रहे हैं। मैं तो उस युवती को वहीं पर छोड़ आया था, पर आप तो उस युवती को यहां तक ले आए हैं और पूरी रात उसे अपने साथ रखा; विचारों में.... । जनक यही तो कहते हैं - आत्मज्ञानी पुरुष की उस मूढ़ आदमी से तुलना कैसे की जा सकती है, जो कि संसार को अपने सिर पर ढोए चलता है । प्रभु, भोगलीला के साथ खेलते हुए आत्मज्ञानी धीर पुरुष की तुलना संसारी व्यक्ति के साथ नहीं की जा सकती। उन्होंने बतौर निवेदन अपने सद्गुरु से कहा Jain Education International तज्ज्ञस्य पुण्यपापाभ्यां स्पर्शो ह्यन्तर्न जायते । न ह्याकाशस्य धूमेन, दृश्यमानाऽपि संगतिः ॥ 46 For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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