Book Title: Na Janma Na Mrutyu
Author(s): Chandraprabhsagar
Publisher: Pustak Mahal

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Page 51
________________ त्याग ज्ञापन का अनुगामी होता है। बाहर से त्याग हो और भीतर से स्मरण हो, वहां त्याग, त्याग नहीं, आत्म- प्रवंचना है । वह त्याग व्यक्ति को बाहर से सम्मान और यश दिला सकता है, लेकिन भीतर की कुंठा को कम नहीं कर सकता । क्रोध छोड़ो, अभिमान छोड़ो, राग-द्वेष छोड़ो- ये बातें कहना-सुनना बड़ा आसान है। अब तक आप ये बातें कितनी - कितनी बार सुन चुके होंगे, लेकिन आत्मसात नहीं हो पाईं । आत्मसात तभी हो सकती हैं, जब व्यक्ति अपनी मूल जड़ों को पहचाने, उनको झकझोरे, जो केवल आत्मज्ञान से ही संभव है । जब तक व्यक्ति को आत्मज्ञान उपलब्ध नहीं होगा, तब तक अहिंसा, अहिंसा नहीं बन पाती; तब कोई अचौर्य जीवन में घटित नहीं हो सकता; अपरिग्रह जीवन की परछाई और सत्य जीवन का प्रकाश नहीं बन पाता । सत्य, अहिंसा, अचौर्य तो फूल हैं, बीज नहीं हैं। बीज तो आत्मज्ञान है, जिसके अंकुरण से ये फूल खिलेंगे। आत्मज्ञान व्यक्ति के जीवन में त्याग अपने आप ले आता है, कोई प्रयास नहीं करना पड़ता । आत्मज्ञान यानी जीवन की अंतर्प्रतीति, आत्मज्ञान यानी स्वत्व की अनुभूति | अंतर् - अनुभूति त्याग को अनायास अपनी परछाईं की तरह साथ ले जाती है । कहते हैंहैं- राजा भर्तृहरि को किसी आगंतुक ने एक अमृतफल भेंट किया और कहा- राजन्, यह अमृतफल स्वीकार करें। जो कोई इस अमृतफल का सेवन करता है, उसका बुढ़ापा चला जाता है, वह नई ताजगी, नया यौवन पा लेता है । सम्राट ने मन-ही-मन सोचा, मैं तो बहुत जी लिया, मैं क्या खाऊं? क्यों न यह फल राजरानी को दे दूं? उसने मेरे लिए अपने आपको समर्पित किया है। सम्राट ने वह फल राजरानी को दे दिया । राजरानी के संबंध किसी महावत से थे, इसलिए उसने वह फल अनुपम उपहार के रूप में महावत को दे दिया । महावत किसी वेश्या से जुड़ा हुआ था, उसने वह फल वेश्या को सौंप दिया । वेश्या ने सोचा कि मैंने तो जीवन भर पाप-ही- पाप किया है। मैं क्या इस फल को खाऊं ? इस फल को पाने के सच्चे अधिकारी तो मेरे प्राणप्रिय महाराज हैं। यह सोचकर वेश्या राजसभा में वह अमृतफल भेंट करने पहुंची। उसके हाथ में वह अमृतफल देखकर राजा को आश्चर्य हुआ । राजा को वेश्या से और महावत से तफ़सील हासिल हुई। तब राजसभा के बीच विराजमान राजा भर्तृहरि संन्यास की अपूर्व आभा से अभिमंडित हो उठा और कहने 1 लगा यां चिंतयामि सततं मयि सा विरक्ता । मैं जिसके बारे में इतना सोचा करता था, मुझे क्या मालूम था कि वह मुझसे इतनी विरक्त है। Jain Education International 50 For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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