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से ही संन्यास घटित हो पाता है, संत की तो अंतरदृष्टि, आत्मदृष्टि होती है । अगर देह-दृष्टि बची रही, तो संतत्व का जन्म ही कहां हुआ ! साधना-पथ पर कदम ही कहां बढ़ा !
धर्म में अगर निषेध हो, तो स्त्री और पुरुष दोनों का हो, प्रवेश की अनुमति हो, तो दोनों को हो और फिर निषेध और विधेय के नियम भला औरों पर क्यों लादे जाएं? विरक्त को अपने फिसलने का भय हो, तो पहले वैराग्य को प्रौढ़ और परिपक्व हो जाने दो, पश्चात् संन्यास की सोचो। संत के लिए अमीर-गरीब का, क्रोध-क्षमा का, सोने-माटी का, स्त्री-पुरुष का, निंदा-स्तुति का भाव गिर जाना चाहिए। जिसका अंतःकरण निर्द्वन्द्व, निष्कषाय, निर्मल हुआ, उसे भोगों से, निमित्तों से, स्थितियों से न सुख होता है, न दुख । जिस व्यक्ति ने अंतःकरण के कषायों को त्याग दिया है, उसे न सुख का अहसास है, न दुख की ही प्रतीति होती है । वह दोनों में स्थितप्रज्ञ बना रहता है । निर्द्वन्द्व और निरासक्त बना रहता है। वह सुख-दुख के पार सदा चिर आनंद में स्थित रहता है । वह चहुं ओर उल्लसित रहता है उसका हर दिन उज्ज्वल होता है। हर क्षण उसका हृदय पुलक से भरा रहता 1 वह उस चिर मुस्कान का स्वामी होता है - जैसी मुस्कान महावीर के थी, बुद्ध के थी, जीसस और सुकरात के थी ।
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अंतर्मन जितना निष्कषाय, जितना सौम्य और जितना स्वार्थमुक्त होगा, अंतर्मन उतना ही स्वर्गमय होगा, मुक्ति के माधुर्य को जी पाएगा। हम अंतर्मन के मंदिर की ओर बढ़ें और आत्मपुलक का दीप प्रज्वलित करें। स्वयं ज्योतिर्मय हों, औरों को ज्योति की सौगात प्रदान करें ।
नमस्कार ।
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