Book Title: Na Janma Na Mrutyu
Author(s): Chandraprabhsagar
Publisher: Pustak Mahal

View full book text
Previous | Next

Page 34
________________ अंतर्दृष्टि की कसौटी जैसे किसी जलते हुए दीये को देखकर बुझे हुए दीये को ज्योतिबोध हो जाए, जैसे किसी खिले हुए फूल को देखकर हृदय की कलियां खिल उठें, जैसे किसी आकाश को देखकर भीतर का आकाश साकार हो जाए, कुछ ऐसी ही स्थिति जनक की हुई है-अष्टावक्र के साहचर्य से, आत्मज्ञानी के संसर्ग से। किसी जलते हए दीये को देखकर बझे हए दीये को ज्योतिबोध हो आया है, मुमुक्षु आत्मा जग गई है। अष्टावक्र जैसे सद्गुरु का संयोग पाकर माटी का एक दीया प्रज्वलित हो उठा है और उसने जन्म-जन्मांतर से आत्मा को घेरे हुए अंधकार के आवरण को, घटाटोप कालुष्य को पल में हर लिया है। अंधकार कितना ही सघन क्यों न हो, उसे मिटाने के लिए एक छोटा-सा चिराग ही काफी होता है। भले ही आज हमें कोई चिंगारी छोटी लगे, मगर वह अपने कदम विराटता की ओर बढ़ा ले, तो दावानल को जन्म दे सकती है। बीज चाहे कितना भी छोटा क्यों न हो, अंकुरित हो जाए, तो विशाल बरगद का रूप ले सकता है। वर्षा की छोटी-छोटी बूंदें बाढ़ का रूप धारण कर लेती हैं। मुख से निकला एक वाक्य व्यक्ति और इतिहास की दिशा बदल सकता है। हम किसी चीज को छोटी कहकर उसकी उपेक्षा नहीं कर सकते। अगर छोटा-सा चिराग हमारे जन्म-जन्म के कालुष्य को मिटा डाले, तो वह छोटा कहां! जनक ने जान लिया है कि अब तक मेरे इर्द-गिर्द मोह और मूर्छा के ही आवरण रहे। परिणाम यह निकला कि मैं जन्म-जन्म तक भटकता रहा। आज जब आत्मज्ञान की आभा प्रकट हुई है, तो मोह की विडम्बना के लिए आंखों से आंसू टपक रहे हैं-ओह, मैं इस स्वरूप का स्वामी और मेरे साथ अब तक यह छलावा! मेरे भीतर सिंहत्व छिपा हुआ था, लेकिन मैं भेड़ों के टोले में इस प्रकार खोया रहा! जब आत्मज्ञान का प्रसाद बरसता है, तो उसके आगे दुनिया की बड़ी से बड़ी संपदा भी त्याज्य है। अगर एक तरफ स्वर्ग का सिंहासन हो और दूसरी तरफ आत्मज्ञान की रोशनी हो, तो उस रोशनी को पा लेना ज्यादा सार्थक है। तभी तो कोई विश्वामित्र 33 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 32 33 34 35 36 37 38 39 40 41 42 43 44 45 46 47 48 49 50 51 52 53 54 55 56 57 58 59 60 61 62 63 64 65 66 67 68 69 70 71 72 73 74 75 76 77 78 79 80 81 82 83 84 85 86 87 88 89 90 91 92 93 94 95 96 97 98 99 100 101 102 103 104 105 106 107 108 109 110 111 112 113 114 115 116 117 118 119 120 121 122 123 124 125 126 127 128 129 130