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है, कोई स्खलन और च्यवन नहीं है । ये सब गुण-धर्म तो देह में होते हैं । मैं देह नहीं, विदेह हूं, देहातीत हूं। मुझ चैतन्य को मेरा नमस्कार !
यह देह, साम्राज्य और विश्व भी, मेरे साथ संबद्ध होने के बावजूद मैं इन सबसे स्वयं को असंबद्ध देखता हूं। मेरा न बंधन है, न मोक्ष । मेरा तो सब कुछ शांत हो गया है। मौन हो गया है, यह शरीर, स्वर्ग, नरक, भय, ये सब मेरे लिए कल्पना भर हैं। मुझे इन सबसे क्या प्रयोजन! अगर अब तक मेरे लिए स्वर्ग-नरक, बंध-मोक्ष, देह और मूर्च्छा रही है, तो इसलिए, क्योंकि मेरी जीने में इच्छा थी । अब सब कुछ शांत है। मन और चित्त की हवाएं थम चुकी हैं। मैं मौन हूं । प्रभु, अब मैं मुक्त हूं। मुझे मेरा नमस्कार !
नमस्तुभ्यं, नमस्मद्यं । तुभ्यम् मह्यम् नमो नमः ॥
तुम्हें भी नमस्कार; मुझे भी नमस्कार। तुमको, मुझको दोनों को ही मेरा नमस्कार । सबको मेरा नमस्कार। संपूर्ण अस्तित्व को नमस्कार । अस्तित्व की आत्मा को
नमस्कार ।
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उस प्रेमी जीवन की जय हो ॥
जो पीता हो विष का प्याला, समझ अनूठी मादक हाला । जन्म-मरण की भवबाधा से,
जिसकी आत्मा अमर - अभय हो, उस प्रेमी जीवन की जय हो ॥
जो दीपक पर प्राण होमकर, सोता हो सुख की समाधि पर । जिस पर चढ़े हुए फूलों से, यह धरती सुरभित मधुमय हो, उस प्रेमी जीवन की जय हो ॥
जय हो राजर्षि, तुम्हारी जय हो, ब्रह्मर्षि तुम्हारी जय हो, तुम अभय हुए, अमर हुए। चिर समाधि को उपलब्ध हुए। तुम जैसे पुण्य - पुरुषों से ही यह धरती सुरभित है, मधुमय है । तुम्हारी जय, तुम्हें हमारे नमन हैं 1
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