Book Title: Na Janma Na Mrutyu
Author(s): Chandraprabhsagar
Publisher: Pustak Mahal

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Page 24
________________ आत्मज्ञान का अहोभाव हर्षि अष्टावक्र को अपने सुपात्र शिष्य के लिए जितना कुछ अपूर्व घटित करना । था, वे अपनी ओर से घटित कर गए। आत्मबोधि और आत्मस्मृति से पूर्ण वह स्वर्णिम और प्रसाद से भरा हुआ ऐसा अनुपम अवसर था कि सम्राट जनक आत्मज्ञान की आभा से अभिमंडित हो गए। उनकी आंखों से आत्मज्ञान की आभा अभिव्यक्त होने लगी। किरणों के रथ पर चलकर रोज सूरज आता है, मगर आज के सूर्योदय में बात कुछ अलग थी। चांद की चांदनी भी कहीं अधिक दूधिया, कहीं अधिक शीतल थी। कुछ ऐसी खुमारी थी कि किसी को दो बूंद पानी की जरूरत हो और उसे पूरी भागीरथी ही उतरती दिखाई दे। जैसे राह भटके राहगीर को अचानक मंजिल नजर आ जाए। __ आदमी जन्म-जन्म तक पुण्यों की सौगात पाता है, तब कहीं जाकर किसी सद्गुरु का संयोग मिलता है। जन्म-जन्म तक किसी पात्र में उंडेलने का प्रयास हो, तो जनक जैसा सुपात्र मिलता है। सुपात्र, यानी जो पात्र रिक्त है और अपात्र, यानी जो पात्र पूरित है, भरा हुआ है। अहंकारी व्यक्ति कभी सुपात्र नहीं हो सकता। अहंकार के शिखर पर बैठा इनसान किसी पेड़ का ठूठ हो सकता है, शीतल छांव देने वाला तरुवर नहीं। वह व्यक्ति गड्ढा हो सकता है, सरोवर नहीं। आत्म-रूपांतरण घटित हो चुका है। अब तो जनक ऐसे ही नाच उठे हैं, जैसे कभी मीरा नाची थी; जैसे कभी चैतन्य महाप्रभु के पांव थिरके थे। अब तक उन्हें किसी गुरु के रूप में आईने की तलाश थी और आज आईना मिल गया। अब तो लगता है कि अष्टावक्र नहीं बोलेंगे, वरन् जनक के भीतर का गुरु-तत्त्व बोलेगा; जनक की वीणा होगी, मगर झंकार अष्टावक्र की होगी। पात्र खाली हो, तो उसे भरा जा सकता है, मगर पात्र पूरी तरह भरा हो, तो उसमें और नहीं उंडेला जा सकता। पहाड़ों पर बरसा पानी पहाड़ों पर नहीं थमता। पानी तो वहीं ठहरता है, जहां शून्य होता है। ठीक वैसे ही अष्टावक्र का आत्मज्ञान जनक के अंतःकरण में जाकर स्थित हुआ और जनक ‘महर्षि जनक' होकर मोह, वासना, तृष्णा-सबसे उपरत हो गए, आत्मज्ञान के प्रकाश से ओत-प्रोत हो गए। 23 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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