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फल के भोगी रहते हैं।
जैनों ने (कर्मवाद के भीतर ) तीर्थकरत्व को सब से बड़ी पुण्य प्रकृति ( देव ) मानलिया है, जिसका भोग तीर्थकर करते हैं। वह पुण्य प्रकृति चक्रवर्ती या सम्राट से भी बड़ी है। इसप्रकार तीर्थकरत्व भोग-प्रधान वनगया है। वह जगत्सेवा की बड़ी कठोर साधना है, कांटों का ताज है, यह वास्तविकता जैनों की दृष्टि से ओझल होगई है। इसलिये वे महावीर सरीखे महान कष्टसहिष्णु तीर्थकर की वास्तविक महत्ता न समझ पाते हैं, न समझा पाते हैं। हिंदू धर्म के अवतारवाद की छाप ने भी तीर्थकर के जीवन को इसप्रकार वेकार कर दिया है।
.अन्धश्रद्धालुओं के महावीर पूजनीय देव हैं अनुकरणीय महामानव नहीं, ऐसी हालत में जब कि आज के वैज्ञानिक युग ने देवताओं की इतिश्री करदी है तब महावीर देव की भी इतिश्री होजाती है। वे किसी पौराणिक कहानी के कल्पित नायक के समान रह जाते हैं क्रांतिकारी ऐतिहासिक महामानव नहीं।
पर इसमें सन्देह नहीं कि वे एक महामानव थे। उनकी महत्ता देवताओं से सेवा कराने में नहीं, किन्तु दुखी दुनिया की सेवा करने में, उसका विवेक जगाने में, एक नई व्यवस्था कायम करने में थी । वे जन्म से मानव थे अपने त्याग तप अनुभव तर्क विवेक आदि से महामानव बने थे इसलिये सुनका जीवन अनुक. रणीय है, आज भी सम्भव होने से चिरन्तन है वास्तविक है।
___ अगर हम चाहते हैं कि मुट्ठीभर जैन लोग ही नहीं, किन्तु सारी दुनिया के लोग म. महावीर को समझे, उनके जीवन से प्रभावित हों, उनकी महामानवता की कद्र करें और सुनके सन्देशों से लाभ उठाये तो हमें बताना होगा कि जन्म. जात मानव राजकुमार वर्धमान, मानब से महामानव कैले बने ?