Book Title: Mahajan Vansh Muktavali
Author(s): Ramlal Gani
Publisher: Amar Balchandra

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Page 17
________________ प्रस्तावना. .: १७ ष्योंका नाम प्रचलित प्रथम हुआ, उनोंमैं आज्ञाकर्ता आचार्य कहलाये, वाचना देनेवाले उवझाय [ उपाध्याय | कहलाये, उवझायशब्द जैनसूत्र प्राकृतका है, वृद्ध बहु श्रुती आर्श कहलाये, कल्याणकारी तपकर्ता कल्याण कहलाये, विस्तार अर्थयुक्त व्याख्याकर्ता, व्यास' कहलाये, आगे जिनोंके वाक्य हितावह वह पुरोहित कहलाये, एवंज्ञाति उन माहनोंमैं नानाकारणोसैं होती गई उसके अनंतर इनोंमें भेद हुआ ऐसा जैन धर्मका मंतव्य है, तदनंतर दिनोंदिन वृद्धि होनेसैं देश २ मैं भिन्न भिन्न वसनेसैं, देशोंकी अपेक्षा जाती स्थापित होगई यथा सारस्वता कान्यकुब्जा, गौडाउत्कल मैथिला, पंचगौड इतिक्षाता, विन्ध्यो उत्तर वासिनः १ इसप्रकार द्रविडदेशकी अपेक्षा पंच द्राविड कहलाये. सर्व ब्राह्मणप्राय अपनेकों इनदशोंके अंतर्गतही मंतव्य करते हैं, जिसमें सरस्वती नदीके शमीपवर्ती सारस्वत कहलाये कनोजदेशवास्तव्य कनोजिये कहलाये, ( सरवर ) केशमीपवर्ती सरवरिये, गौडदेशवासी गौड, गुजरातके वास्तव्य गुजर गोड, उत्कल देशवास्तव्य उत्कल कहलाये, मिथिलावास्तव्य, मैथिल कहलाये, संखारड्डीऋषिकी शंतान शंखबाल, पाराश्वरकेपारीक, दाधीचके दायमैं, खंडेलाके शमीपवर्ती खंडेलवाल, भृगुऋषिकेभार्गव ( दुसर ) इत्यादि अनेक भेदांतर गौडोके इससमय है, द्रविड, कर्णाटी, तैलिंग, महाराष्ट्र, औदिच्य, गुज्जर, इनगुज्जरके भेदांतर, श्रीमाली, पुष्करणे, गूगली, तैलिंगके भेदांतर भट्ट, गोस्वामी, इत्यादि है, साकलद्वीपी भोजक, राजगुरुप्रोहित, भोजक, चौबे, सनाढ्य, पांडे इत्यादि ८४ भेदांतर माने जाते हैं, जिन २ जातिकी पुरानोंमैं, उत्पत्ति लिखी है वह पीछैबने सिद्धहोते हैं, और जिसकी उत्पत्ति पुराणोमैं नहीं लिखी है, वह सनातन प्राचीन ब्राह्मण सिद्ध होते हैं, ( उदाहरण) पुष्करणे ब्राह्मणोंकी उत्पत्ति किसीभी देवतासैं, वा अमुक ऋषिके शंतान ऐसा लिखत नहीं देखनेमैं आता, इसन्याय, जबसैं ब्राह्मणवर्णकी स्थापना प्रचलित हुई तब हीसै पोसह करनाब्राह्मण हुये, ये बलात्कार सिद्ध होता है, सूर्यचंद्रादिग्रह, इंद्रादिकदिव्य शरीरधारी देवोंकी तेजोमई प्रतिछाया उनोंकी ये पहचान है, उच्च दरजेके देव, मनुष्य लोककी दुर्गधिके कारण, एकाएक मृत्युलोकमैं, आते नहीं, किसी तपेश्वरीके तपसिद्धिसैं, वा पूर्वभवके स्नेहके वश ध्यानके वस आते हैं, तो भूमिसैं स्पर्श उनोंका पांव नहीं होता, न्यूनमैं न्यून चार अंगुल पृथ्वीसैं अधर रहते हैं, आंख नहीं टमकारते, पुष्पमाल कंठस्थ नहीं म्लान होती, मनमैं धारे कार्य करने समर्थ, इतने चिन्ह दिखाई देतो, देव समझो, अन्यथा मनुष्य, मनुष्यलोकमैं तथा वागवगीचोमैं, जो देव रहते हैं, वे व्यंतर जाति, वनव्यंतर जाति एवं १६ उनोंमैं भी, महानपुण्यशाली व्यंतर देवभी मृत्युलोकमैं पूर्वोक्तकारणविना नहीं आते, देव देवांगनास, रतिक्रीडा करते, पूर्णप्ति, वायुके

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