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पदनजुन्छ काव्य की ओर उन्मुख करना है । इनके सभी गीत उपदेशान्मक एवं अध्यात्म-भावना से परिपूर्ण हैं।
मयणजुद्ध कव्व : एक काव्य रूपक मयणजुद्ध कव्य : पृष्ठभूमि
मयाणजद्ध कब एक आध्यात्मिक कृति है, जिसकी रचना रूपकात्मक या प्रतीकात्मक शैली में हुई है । भारतीय साहित्य में यह शैली अन्यन्न प्राचीन रही है । रूपक काव्य का स्वरूप एवं परम्परा
साहित्य-सर्जना की विभिन्न शैलियों में एक शैली प्रतीकात्मक भी हैं । साहित्यकार किसी नथ्य का निरूपण जब अमूर्त या अप्रस्तुत के माध्यम से करता हैं, तब वह कुछ मान्य रूपकों या प्रतीकों की योजना करता हैं । काव्य-जगत में वस्तुतः अमूर्त भावों के मूर्तिकरण का तथा उनके रूपविधान का जो स्वरूप सामने आता है । वह रूपक कहलाता है।
इस शैली के उपकरणों में उपमा, रूपक, अतिशयोक्ति और लक्षणा के दो भेद-सारोपा लक्षणा एवं साध्यवसाना लक्षणा आते हैं। इनमें से सादृश्यमूलक सारोपा लक्षणा रूपक की आधारशिला है । इसी की भित्ति पर रूपक का भव्य-महल निर्मित होता है । सारोपा-लक्षणा उपमेय और उपमान को एक ही धरातल पर स्थित कर देती है. जिससे वस्तुस्वरूप को सहजता से समझा जा सकता है । रूपकों की प्राचीनता ( रूपकों का विकास )
__ भारतीय वाङ्मय में अमूर्त को मूर्त रूप प्रदान करने वाली शैली अत्यन्त प्राचीन है । सर्वप्रथम बृहदारण्यक उपनिषद् के उद्गीथ ब्राह्मण' और छान्दोग्योपनिषद में भी रूपकात्मक आख्यायिकाओं का स्वरूप उपलब्ध होता है । श्रीमद्भगवद्गीता में पाप और पुण्य का उल्लेख दैवी और आसुरी सम्पत्ति के रूप में किया गया है । बौद्ध साहित्य की जातक कथाओं में भी रूपक शैली दृष्टिगोचर होती है । अर्धमागधी आगम साहित्य
अर्धमागधी प्राकृत-साहित्य के सूत्रकृतांग, नायाधम्मकहाओ और उत्तराध्ययनसूत्र में उपलब्ध रूपक विशेषरूपेण उल्लेखनीय हैं । इन रूपकों के आधार पर भगवान महावीर ने भौतिकवाद, नियतिवाद, आत्मवाद एवं पुरुषार्थ आदि दार्शनिक मनों के स्वरूप बतला कर उनके गुण-दोषों का स्पष्ट विवेचन किया है।
इस प्रतीक शैली को काव्यरूप प्रदान करने वाले सर्वप्रथम महाकवि अश्वघोष ( प्रथमसदी ) हैं, जिन्होंने अपने "बुद्धचरित में भावात्मक गुणों को मूर्तिमान स्वरूप
1. बृहदारण्यक : उद्गीथ ब्राह्मण. 1.3
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छान्दोग्य उपनिषद 1.2