Book Title: Kriya Parinam aur Abhipray
Author(s): Abhaykumar Jain
Publisher: Todarmal Granthamala Jaipur
________________
भूधर को निकसै..... अब मेरे समकित सावन आयो । । टेक || वीति कुरीति मिथ्यामति ग्रीष्म, पावन सहज सुहायो । । 1 । अनुभव दामिनि दमकन लागी सुरति घटाघन छायो । बोले विमल विवेक पपीहा, सुमति सुहागिन भायो | 12 ||
गुरू धुनिगरज सुनत सुख उपजै, मोर सुमन वि-हंसायो । साधक - भाव अंकूर उठे बहु, जित-तित हरष सवायो । । 3 ।।
I
भूल-धूल कहिं मूल न सूझत, समरस जल झर लायो 'भूधर' को निकसै अब बाहिर, निज निरचूँ घर पायो । | 4 ||
यह सीख सयानी
जीवन के परिनामनि की यह, अति-विचित्रता देखहु ज्ञानी । । टेक ।। नित्यनिगोद माहि तैं कढ़कर, नर-परजाय पाय सुखदानी । समकित लहि अन्तर्मुहूर्त में केवल पाय वरै शिवरानी ।। 1 ।। मुनि एकादश गुणथानक चढ़ि, गिरत तहाँ तैं चितभ्रम ठानी। भ्रमत अर्धपुद्गल परिवर्तन, किंचित् ऊन काल परमानी | 2 || निज परिनामनि की सँभाल में, तातैं गाफिल मत हो प्रानी । बंध - मोक्ष परिनामनि ही सों, कहत सदा श्रीजिनवर वानी । 3 ।।
उपाधि निमित्त भावनि सों, भिन्नसुनिजपरनतिकोछानी । ताहि जानि रूचि ठानि होहु थिर, 'भागचंद' यह सीख सयानी ।। 4 ।।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org
Page Navigation
1 ... 7 8 9 10 11 12 13 14 15 16 17 18 19 20 21 22 23 24 25 26 27 28 29 30 31 32 33 34 35 36 37 38 39 40 41 42 43 44 45 46 47 48 49 50 51 52 53 54 55 56 57 58 59 60 61 62 63 64 65 66 67 68 69 70 71 72 73 74 75 76 77 78 79 80 81 82 83 84 85 86 87 88 89 90 91 92 ... 114