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चिन्मूरति दृगधारी...! चिन्मूरति दृगधारी की मोहे, रीति लगत है अटापटी।।टेक ।। बाहर नारक-कृत दुःख भोगे, अन्तर सुखरस गटागटी। रमत अनेक सुरनि संग पै तिस, परनति से नित हटाहटी।।1 || ज्ञान --विराग शक्ति से विधिफल, भोगत पै विधि घटाघटी। सदन-निवासी तदपि उदासी, तातें आस्रव छटा टी।।2।। जे भवहेतु अबुध के, ते तस करत बंध की झटाझटी। नारक–पशु तिर्यन्च विकलत्रय, प्रकृतिन की है कटाकटी ।।3 ।। संयम धर न सके पै, संयम धारण की उर चटाचटी। तासु सुयश-गुण को "दौलत" के, लगी रहे नित रटारटी। 14 ।।
एक राग-हरनी
परनति सब जीवन की, तीन भाँति वरनी। एक पुण्य, एक पाप, एक राग-हरनी।।टेक ।। तामें शुभ-अशुभ अन्ध, दोय करें कर्मबन्ध । वीतराग परिणति ही, भवसमुद्र-तरनी।।1।। जावत शुद्धोपयोग, पावत नाहीं मनोग। तावत ही करन-जोग, कही पुण्य करनी।।2।। त्याग शुभक्रिया कलाप, करो मत कदाच पाप। शुभ में होय मगन ना, शुद्धता विसरनी।।3।। ऊँच-ऊँच दशा धारि, चित-प्रमाद को विडारि। ऊँचली दशा तैं मति, गिरो अधो-धरनी। 14 || 'भागचन्द" या प्रकार, जीव लहे सुख अपार। . यातें निरधार स्याद्-वाद की उचरनी। 15 ।।
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