Book Title: Kriya Parinam aur Abhipray Author(s): Abhaykumar Jain Publisher: Todarmal Granthamala Jaipur View full book textPage 6
________________ मुक्त करके अध्यात्म रस पान करने का मार्ग प्रशस्त कर दिया। सन् 1971 से दशलक्षण पर्व एवं अन्य अवसरों पर प्रवचनार्थ बाहर जाना प्रारम्भ हुआ। पूज्य गुरुदेव श्री के संदेश को जन-जन तक पहुँचाने के लिए सातवें अध्याय से बढ़िया सरल माध्यम और क्या हो सकता था ? आगम का अभ्यास करने के बावजूद भी अभिप्राय की भूलों का तलस्पर्शी किन्तु सरल, स्पष्ट और बेलाग विवेचन जैसा इसमें किया गया है, वैसा अन्यत्र दुर्लभ है। न जाने कब मेरा ध्यान सम्यक् चारित्र का अन्यथा स्वरूप' प्रकरण के प्रथम पैराग्राफ में प्रयुक्त क्रिया, परिणाम और अभिप्राय शब्दों पर गया और गत 1520 वर्षों से ये शब्द सातवें अधिकार पर प्रवचन के केन्द्र बिन्दु बन गए। तब से अब तक सैकड़ों बार इस विषय पर समाज में चर्चा करने का अवसर मिला और इसमें अनेक नए-नए बिन्दु शामिल होते गए। अनेक छात्रों और साधर्मी बन्धुओं का बारम्बार प्रबल आग्रह होने लगा कि इस चिन्तन को पुस्तकाकार रूप प्रदान किया जाए। इससे पूर्व पूज्य गुरुदेव के प्रवचनों का गुजराती से हिन्दी अनुवाद करने का तथा अनेक भक्ति-गीत लिखने का अवसर तो मिला था, परन्तु किसी विषय पर पुस्तक लिखने का साहस नहीं कर पाया था। मेरे मित्र अखिल बंसल कभी-कभी कहा करते अभयजी ! आप भी कोई किताब लिख डालो!' तब मुझे तत्काल विचार आता कि “पूज्य गुरुदेव श्री ने अथाह जिनागम का मर्म खोलकर इतना माल परोस दिया है कि सारा जीवन खायें तो भी कम न हो। उनके अनन्य शिष्य डॉ. भारिल्लजी ने भी अध्यात्म के प्रायः प्रत्येक पहलू पर सभी विधाओं में हजारों पेज लिखे हैं, जो लाखों लोगों तक पहुँच चुके हैं, अब मेरे लिए कोई अलिखित विषय ही नहीं बचा और न मुझमें उन जैसी प्रतिभा है। अतः गुरुदेव के प्रवचन एवं छोटे दादा की लेखनी को प्रवचनों और कक्षाओं के माध्यम से जन-जन तक पहुँचाने के बहाने स्वयं उसका रसपान करना ही श्रेयस्कर है।" ऐसी अनुभूति होने पर भी यह पुस्तक लिखी गई, यही इसके उपादान की योग्यता का प्रबल प्रमाण है। सन् 2002 में इसका लेखन कार्य प्रारम्भ हुआ और मई 2002 में देवलाली Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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