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विषयानुक्रमणी
तृतीयो द्विर्वचनपादः १६. द्विवचनविधि का अधिकार, द्विवचनविधि का निषेध २९७-३२२
[एकस्वरविशिष्ट धातु का द्विर्वचन, लोकव्यवहार के अनुसार वीप्सा में पद की द्विरुक्ति तथा व्यपदेशिवद्भाव की मान्यता, समुदाय के व्यापार में अवयवों का भी व्यापार, 'प्र-सम्-उप-उत्' उपसर्गों का स्वार्थिक द्विर्वचन -
प्रप्रपूज्य महादेवं संसंयम्य मनः सदा।
उपोपहाय संसर्गमुदुद्गतः स तापसः॥ वाक्यों का सोपस्कार होना, अधिकार की व्याख्या, दो प्रकार का अधिकार, 'हेमकर-वैद्य' आदि आचार्यों के विविध मत, सम्भ्रम आदि स्थलों में पदों का द्विर्वचन, स्वरादि धातु के एकस्वरवाले द्वितीय अवयव का द्विर्वचन, शिष्टप्रयोग के अनुसार द्विर्वचनविधि, सभी व्याकरणों का सिद्धान्त, स्वरादि धातु के द्वितीय अवयवरूप-संयोग के आदि में विद्यमान 'न्-ब्-द्-र' इन चार वर्गों के द्विर्वचन का निषेध] १७. 'अभ्यास-अभ्यस्त' संज्ञाएँ
३२२-३१ _[द्विर्वचन होने पर पूर्ववर्ती रूप की अभ्याससंज्ञा, धातु के एकदेश में भी धातु का व्यवहार, 'निरुक्त-ऋक्तन्त्र' आदि प्राचीन ग्रन्थों तथा 'जैनेन्द्र व्याकरण' आदि अर्वाचीन ग्रन्थों में उक्त संज्ञाओं का प्रयोग, द्विर्वचन के दोनों रूपों की अभ्यस्तसंज्ञा, हेमकर आदि आचार्यों के विविध मत, जातिपक्ष-व्यक्तिपक्ष का विचार, लोक में अनेक अभ्यास वाले कार्य के लिए अभ्यस्त शब्द का व्यवहार, द्विर्वचन न होने पर भी 'ज' आदि पाँच धातुओं की अभ्यस्तसंज्ञा, छान्दस प्रयोग]
१८.द्विवचनविधि तथा आदिव्यञ्जन आदि का अवशेष रहना ३३१-४७
[चण्-परोक्षासंज्ञक-चेक्रीयितसंज्ञक-सन् प्रत्यय के परवर्ती होने पर धातु का द्विर्वचन, स्पष्टात 'अन्त' शब्द का ग्रहण, उमापति आदि आचार्यों के विचार, विषयसप्तमी-परसप्तमी का विचार, कातन्त्रीय 'चण्-परोक्षा-चेक्रीयित' के लिए पाणिनि द्वारा 'चङ्-लिट्-यङ्' का प्रयोग, जुहोत्यादिगणपठित धातुओं का द्विर्वचन, संज्ञाओं का रूढ होना, सुखार्थ 'तिप्' - प्रत्ययान्त शब्द का पाठ, कातन्त्रीय 'हु' आदि धातुओं का अदादिगण के अन्तर्गत पाठ, टीकाकार द्वारा सूत्रकार का समर्थन, अभ्याससंज्ञक रूप में आदि व्यञ्जन का ही सुरक्षित रहना, अन्य व्यञ्जनों का लोप, ज्ञापकवचनों का वैकल्पिक होना, लोकव्यवहार के आधार पर जाति-व्यक्ति-उभय की सिद्धि, धातुओं की अनेकार्थता, शिट् से परवर्ती अघोषवर्ण का शेष रहना-शिट का लोप होना, शिक्षा का आश्रयण करने से प्रतिपत्तिगौरव]