Book Title: Karmpath
Author(s): Premnarayan Tandan
Publisher: Vidyamandir Ranikatra Lakhnou

View full book text
Previous | Next

Page 17
________________ ( १५ ) झोंक सकता भाग में कही पुत्र को पिता दारुण दुख यह सहे चाहे कितने हो । शिक्षा सब व्यर्थ हुई तेरी ; लज्जित हूँ मैं, गुरु जनों ही का सम्मान करना न पाया जो तुझे, और कहलाता सुरराज है तू ? [कर युगल मलने लगे खेद कर वे बड़ा ; पोछकर बारिवृन्द दाहने कर से, देखकर शून्याकाश की ओर, उन्होंने ली एक बार लम्बी उसाँस कुछ निराश हो मन में और फिर निज मस्तक झुका लिया । निज सुपुत्र कच की याद श्री गई उन्हें, विचार-तरङ्ग मानसान्धि में लौटती थी। हृदय कुछ हलका-सा हो गया उनका, शान्त हुश्रा हो अशान्त सागर-वेग जैसे झञ्झा के बाद ही । मन में कुछ मुदित हो, क्षणभर पुलकित-से सोचने लगे वे ] सुपुत्र ही प्राणाधार होता वृद्ध पिता का जगती पर ; सुशील शिष्ट देख उसे ही निज जीवन जनक सार्थक समझते । मेरा भी है आँख का तारा एक, सुमन-सा

Loading...

Page Navigation
1 ... 15 16 17 18 19 20 21 22 23 24 25 26 27 28 29 30 31 32 33 34 35 36 37 38 39 40 41 42 43 44 45 46 47 48 49 50 51 52 53 54 55 56 57 58 59 60 61 62 63 64 65 66 67 68 69 70 71 72 73 74 75 76 77 78 79 80 81 82 83 84 85 86 87 88 89 90 91 92 93 94 95 96 97 98 99 100 101 102 103 104 105 106 107 108 109 110 111 112 113 114 115 116 117 118 119 120 121 122 123 124 125 126 127 128 129