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उऋण तो हो नहीं सकूँगा कभी मैं अपने इस जीवन में जननी के ऋण से; कुछ चाह भी नही-भार ही इलका करना चाहता अति विनम्र हो, स्वीकार कर कृतज्ञतापूर्वक उसे मैं। [मोचते हुए कुछ लगते हैं टहलने ।] वृद्ध हो गया हूँ, हाय, शाक है इतना ही, अपमान यह अन्यथा धो देत। शत्रुओं के शाणित से युद्ध में, सुरेश के समक्ष ही। [उन्नत ललाट पर वारिवृन्द झलके, भृकुटी भी कुछ टेढ़ी हुई ; तभी उनसे शान्त रवि-करों ने श्री विनय को यत्न से, लुपल्लवों से छनकर-शान्त हो, शान्त हो ।।
और बेटा इन्द्र ! [स्वर है श्रावेशरहित ।)
आश्चर्य है महान, साहस हुआ इतना तुझे कैमे, करे जो अपमान मेरा सभामध्य ? भय भी न हुआ तुझे मेरे शाप का ? शाप देकर तुझे हा, प्रसन्न न हूँगा मैं ;