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( ६८ ) अपने खद्दर के ही कपड़ों में। ( पुनः शची की ओर देखकर ) जरा देर रुक सकती हो ? ( उठता हुआ ) अभी शची के लिए फिराक लाया मैं। (अलमारी की कुंडी से कुरता उतारकर पहनता हुआ ) जाना मत मेरे आने से पहले, हाथ जोड़ता हूँ तुम्हारे।
[राजीव अलमारी खोलकर एक बंडल निकालता है । पश्चात, चप्पल पहनकर बेटी की ओर देखता हुआ बाहर जाता है । शंची कभी माता की और देखती है और कभी जमीन की ओर ताकने लगती है। कांति हतबुद्धिं-सी उधर ही देखती रह जाती है जिधर पति गया है। उसकी समझ में ही नहीं आता कि इसे अपनी विजय समझे अथवा पराजय । कुछ देर बाद वह लड़की के पास आकर बैठ जाती हैं और उसकी पीठ पर हाथ फेरने लगती है।]
मोटी फिराक मुझसे नहीं पहनी जाती हैं मांती जी! तुम्हारे पास तो बड़े अच्छे अच्छे कपड़े हैं !
: (ठही साँस लेकर ) अब कहाँ हैं बेटी ! पहले के ही चल रहे हैं जो कुछ थे।
शंची पहले के कैसे माँ ?