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( २८ ) .. व्यग्रता थी उल्लासपूर्ण उस हृदय में । ]
कच मार दूंगा लात समस्त संसार के मभी प्रल भनों पर ; जननी स्वभूमि के लिए अर्पण कर दूंगा प्राण भी सहर्ष ही मैं। जूझ जाऊँगा शत्रुओं से हँसते-हँसते ; तिल-तिल कट जाय चाहे देह अपनी, नहीं परंतु पैर पीछे धरूँगा कभी मैं । निश्चित रहिये पिता जो ! पुत्र श्रापका हूँतन में मेरे रहेगा रक्त एक बूंद भी .. पालन स्वकर्तव्य का करता रहँगा मैं । लांछन-व्रण न लग सकगा मरने के बाद भी मेरे, यशः-शरोर पर आपके। अवसर न होगा स्वजन परजन को किंचित् भी परस्पर उगलो उठाने का।
[ कर दाहना उठ गया तब ऊपर को स्वयं ही कच का । प्रेरित किया हो मानों प्रण-पूर्ति को प्रभु-प्रतिनिधि-स्वरूपिणी परम शक्ति ने, स्थित रहती सदैव ही हृदय-सिंहासन पर मदा प्राणियों के ।