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समय
अप्रैल का अंतिम रविवार जब लखनऊ में काफी गर्मी पड़तो है और लू भी चलने लगती है। जो बाबू लोग रोज दफ्तर में
आराम से खस की टट्टियों और पंखों का आनंद लेते थे, आज घर के तपते कमरों में पड़े हैं। धूप की चमक से बचने के लिए दरवाजे जब वे बंद करते हैं तो पसोना परेशान करता है और जब दरवाजे बोल लेते हैं तो आँख सामने नहीं की जाती ।
बच्चों के लिए यह समय स्वतंत्रता का है। बाबू जी कमरे में श्राराम कर रहे हैं, माता जी दहलीज में लेटी हैं, अब उन्हें कोई टोंकनेवाला नहीं है। दो-तीन घंटे तक उनकी बुलाहट न हो सकती, यह वे जानते हैं।
पात्र ।
शोला--
रोगी की पुत्री । दस वर्षीय बालिका । दुबली-पतली । रंग खुलता हुश्रा । चेहर-मोहरा साधारण आँखें और बाल कुछ भूरापन लिए हुए । रंगीन फिराक और सफेद जाँघिया पहने है । सतीश
सात वर्षीय दुबला-पतला बालक । रंग बहन शीला से मिलता जुलता । एक बनियायन और नेकर पहने । स्वभाव से सोधा, बुद्धि