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कर्तव्य पालन कर ही मुँह दिखाऊँगा, लौहूँगा अमरावती में न अन्यथा कभी ।
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[ गड़ गए नेत्र दोनों मुख पर पुत्र के ले रहे थे थाह हृदय की उसके जेमे । दृष्टि में दृढ़ता थी, किंचित् उत्सुकता भी । होता उथल-पुथल कुछ हृदयाब्धि मे मच रहा द्वंद्व था ममत्व में, कर्तव्य में स्पष्ट थी मुख-पटल पर छाप जिसकी ।
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अस्त हो चुका था सूर्य अर्द्ध, दीख रहा था शेष रुक-रुककर देख रहा हो जैसे कठिन संघर्ष वात्सल्य का और धर्म का ।
निश्चल मी कुल वायु थी, प्रकृति शान्न हो, निःश्वास रोक सुनना चाहती हो मानो हृदयोद्गार पिता-पुत्र के ।
न हिलते थे
पत्र तरुवरों के, हतप्रभ चकित - से. मुग्धमन दीखते थे सभी उस साँझ को ।
सहज सरलता खेल रही थी कच के मुख- प्रांगण में । निर्भीकता टपकती थी नयनों से उसके ! झलकता कर्तव्य था