Book Title: Jinsahastranamstotram Author(s): Jinsenacharya, Pramila Jain Publisher: Digambar Jain Madhyalok Shodh Sansthan View full book textPage 9
________________ * १० * न पूजयार्थस्त्वयि वीतरागे, न निन्दया नाथ विवान्तवैरे। तथापि ते पुण्यगुणस्मृत्तिनः, पुनातु चित्तं दुरिताञ्जनेभ्यः ॥२॥ "हे भगवन् ! आप वीतराग हैं अतः आपको पूजा, स्तुति से कोई प्रयोजन नहीं है तथा आप बैरविरोध से रहित हैं अतः आपको निन्दा से भी कोई प्रयोजन नहीं है, फिर भी हे प्रभो ! आपके गुणों का स्मरण करने से मन पापरूपी अंजन से रहित हो जाता है।" (श्रीवासुपूज्यजिनस्तवनम्) 'कल्याणमन्दिर' में कुमुदचन्द्र आचार्य ने कहा है कि "हे प्रभो ! जो आपका चिंतन-मनन करके अपने हृदय कमल में आपको प्रतिष्ठित करते हैं, आपकी आराधना करते हैं, उनके घोर निकाचित कर्म भी ढीले पड़ जाते हैं; जैसे चन्दन के वृक्ष पर मयूर के आ जाने से वृक्ष पर लिपटे हुए सर्प ढीले पड़ जाते हैं, वृक्ष को छोड़कर भाग जाते हैं।" वीतराग प्रभु की स्तुति, पूजा, ध्यानादि के द्वारा आत्मा के निष्पाप शुद्ध स्वभाव की प्रतीति होती है, आत्मानुभव होता है जो सभी जीवों की सामान्य सम्पत्ति है। ऐसी निधि को प्राप्त करने के सभी भव्य जीव अधिकारी हैं। उस शुद्ध स्वरूप का ज्ञान होते हो अपना उस भूली हुई निधि का स्मरण हो जाता है, उसकी प्राप्ति के लिए प्रेम तथा अनुराग जागृत हो जाता है तथा पाप-परिणति सहज ही छूट जाती है। जिनेन्द्रभक्ति द्वारा जीव के शारीरिक, आर्थिक, मानसिक आदि सभी कष्ट दूर होते हैं। समस्त कामनाएं पूर्ण होने के सिवाय अंत में इच्छाओं का भी क्षय होकर वीतरागता की उपलब्धि होती है, जिसके द्वारा सिद्ध स्वरूप की प्राप्ति होती है। अध्यात्मयोगी पूज्यपाद महर्षि ने लिखा है - अव्यायाधमचिन्त्य-सार-मतुलं त्यक्तोपर्म शाश्वतम् । सौख्यं त्वच्चरणारविन्द-युगल-स्तुत्यैव संप्राप्यते॥ "हे जिनेन्द्र ! आपके चरण-युगल की स्तुति से ही अव्याबाध, अचिंत्य, सार-पूर्ण, अतुलनीय, उपमातीत तथा अविनाशी सुख की उपलब्धि होती है। इसी कारण श्रेष्ठ श्रमणा ने आत्मकल्याण तथा समृद्धि के हेतु जिनेन्द्र स्तुति की महत्ता कही है। इससे महान् पुण्य का लाभ होते हुए अन्त में पुण्यातीत अवस्था भी प्राप्त होती है। आत्मबली सम्राट् भरतेश्वर ने दीक्षा लेकर अंतर्मुहूर्त में केवलज्ञान प्राप्त किया था। वे जिनेन्द्रभक्तों के चूड़ामणि थे। भरतेशवैभव कन्नड़ काव्य में रत्नाकर कवि ने भरतराज को श्रीजिन-चरणाब्ज-सुरभि-मधुब्रत- श्री जिनेन्द्र के चरण-कमलPage Navigation
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