Book Title: Jinsahastranamstotram
Author(s): Jinsenacharya, Pramila Jain
Publisher: Digambar Jain Madhyalok Shodh Sansthan

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Page 8
________________ ** वे जानते थे कि क्लेश रूपी अपार जल से भरे हुए अनंत संसार से पार होने के लिए जिनेन्द्र भगवान की भक्ति रूपी नौका ही कल्याणकारी है। इसलिए श्रावक साधु दोनों हमेशा भव भव में जिनेन्द्र-भक्ति की प्रार्थना करते हैं और - तव पादौ मम हृदये, मम हृदयं तव पदद्वये लीनम् । तिष्ठतु जिनेन्द्र तावन् यावन्न निर्वाणसम्प्राप्तिः ॥ हे प्रभो ! मेरा हृदय आपके चरणों में और आपके चरण मेरे हृदय में तन तक लीन रहें जब तक मुझे मुक्ति की प्राप्ति न हो । इस भावना से मानव भक्ति में लवलीन हो जाता है। एक बार लंकाधिपति की भक्ति से प्रसन्न हो नागेन्द्र कुछ विद्या देने की दृष्टि से आकर कहने लगा- “तुम्हारी भक्ति से मेरा हृदय अत्यन्त आनंदित है। बोलो, तुम्हें मैं क्या भेंट दूँ ।" तब लंकाधिपति बोले - "जिनेन्द्र भगवान की आराधना से बढ़कर क्या कोई वस्तु है, जिसे आप देना चाहते हैं।" तब नागेन्द्र ने उत्तर दिया “जिनवन्दनातुल्यं अन्यं किमपि न विद्यते"जिनेन्द्रभक्ति से बढ़कर और कोई वस्तु नहीं है। स्वयम्भूस्तोत्र में लिखा है गुणस्तोकं सदुल्लंघ्य तद् बहुत्वकथा स्तुतिः । आनन्त्यात्ते गुणाः वक्तुमशक्यास्त्वयि सा कथम् ॥ अल्पगुणों को बढ़ाकर कहना स्तुति है । यहाँ सर्वज्ञ वीतराग जिनेन्द्र के गुणों का अल्पतम अंश भी जब पूर्णतया वर्णन के अगोचर है, तब अर्हन्त परमात्मा की स्तुति कैसे की जा सकती है ! यद्यपि हम वीतराग प्रभु की स्तुति करने में समर्थ नहीं हैं तथापि जितने अंश में स्तुति करते हैं उतने अंश में स्तोता के कर्मों की निर्जरा होती है अतः परिणामों की विशुद्धि के कारणभूत वीतराग प्रभु की भक्ति में लीनता अवश्य होनी चाहिए । गिलास भर अमृत पीने वाले का ही रोग नष्ट नहीं होता है अपितु चुल्लूभर पीने वाला भी सुखी होता है । जिनभक्ति की महिमा अचिन्त्य है। जैनाचार्यों ने भक्ति रस का पानकर स्वकीय मन को संतुष्ट किया और कर्मनिर्जरा करने के लिए स्तुतिपरक ग्रन्थों की रचना की। स्वयम्भूस्तोत्र आदि भक्तिपरक स्तोत्रों में जिनभक्ति को पापों का नाश करने वाली कहा है। जिनेन्द्र देव के गुणों के चिन्तन, मनन और उनकी आराधना से पाप नष्ट हो जाते हैं र 1 भ ने HE र ה I न ‍ ₹ भ t ↑ I

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