Book Title: Jindutta Charit
Author(s): Gunbhadrasuri, Tonkwala, Mahendrakumar Shastri
Publisher: Digambar Jain Vijaya Granth Prakashan Samiti
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प्रापका विवाह ८ या १० वर्ष में ही कर दिया था तया १५ दिनों में ही आप विधवा हो गईं । देव का तीव्र प्रकोप देखकर सब लोग शोकाकुल हो उठे। पर आपने अपने को बैराग्य की तरफ ढालकर अपूर्व धैर्य और माहस का परिचय दिया । विवाह के बाद आप ससुराल नहीं गई थीं, मात्र फेरे पड़े, उतना ही समझे, आपको बाल ब्रह्मचारिणी कहें तो कोई अतिशयोक्ति नहीं होगी। नारी का प्राभूषण शील पौर संयम है, ऐसा विचार कर आप अखण्ड ब्रह्मचर्य धारण कर पारा में श्री ब. चन्दाबाईजी के प्राश्रम में पढ़ने लगीं। वहाँ पांचवीं कक्षा में प्रापका नामांकन हुआ था पाश्रम में १६ वर्षों तक रहकर आपने अध्ययन किया। प्रध्ययन काल में अपने से छोटी कक्षा की छात्राओं को पाप पढ़ाती भी थीं। मापकी बुद्धि बहुत प्रखर थी। आप अपनी कक्षा में प्रथम स्थान प्राप्त करती थीं । आपने बी. ए., बो. एड. कर साहित्य रत्न, विशारद और न्याय तीर्थ की परीक्षायें भी दीं। इसी समय प्राचार्य श्री १०८ महावीर कीर्तिजी महाराज का संघ प्रारा नगरी में पधारा, अब पाएके जीवन में एक नया मोड़ पाया । मैं भी प्रायिका बनूं, तप करू ऐसा भाव बनने लगा । आप गुरू चरणों में शूद्र जल का त्याग कर साधुओं को माहार देने लगी। आपने आचार्य श्री से प्रायिका दीक्षा के लिये भाव प्रगट किया पर महाराज ने कहा कि तुम्हारी दीक्षा मुझसे नहीं होगी पर तुम मेरे पास बाद में अवश्य प्रामोगी। वैसा ही हुआ।
सन् १९६२ में मंत्र बुदी तीज-वि० सं० २०१६ को आगरा में, प्राचार्य श्री १०८ विमलसागर जी महाराज से प्रापने प्रायिका दीक्षा लो उसके बाद सन् १९६४ में सिद्ध क्षेत्र बड़वानी जी में प्राचार्य श्री १०८ महावीर कीर्तिजी महाराज और प्राचार्य श्री १०८ विमलसागरजी महाराज संघ सहित विहार करते हुए पहुँचे। दोनों संघों का चातुर्मास वहीं हुअा । अब भाप गुरु की अनुज्ञा लेकर प्राचार्य श्री १०८ महावीर कीर्तिजी के पास पढ़ने लगी तथा चातुर्मास के बाद प्राचार्य श्री १०८ विमलसागर जी महाराज से अनुमति लेकर माप माचार्य श्री १०८ महावीर कीर्तिजी महाराज के पास ही रहने लगीं।
प्रापको ज्ञान, गरिमा, निर्मल चारित्र और वात्सल्य भाव को देखकर श्री १०८ समाधि सम्राट् प्राचार्य श्री महावीर कीर्तिजी महाराज ने आपको अपनी समाधि के समय-१९७२ में गणिनी पद से विभषित किया था।