Book Title: Jainagam Nyayasangraha
Author(s): Atmaramji Maharaj
Publisher: Jain Shastramala Karyalaya Ludhiyana

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Page 29
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir भावप्रमाणम् साइबारे अ निरइबारे अ। परिहारविसुद्धि चरित्तगुणप्पमाणे दुविहे पण्णात्ते, तंजहा निन्धिसमाण य निविट्ठकाइए अ। सुहुमसंपरायगुणप्पमाणे दुविहे पएणत्ते, तंजहा-(संकिलिस्समाणए य विसुज्झमाणए य, अहक्खायचरितगुणप्पमाणे दुविहे पन्नत्ते, तंजहा--) पडिवाई अ अपडिवाई अ । (अहवा) अहक्खायचरिचगुणप्पमाणे, दुविहे पएण, तंजहाछउमथिए अकेवलिए य । से तं चरित्तगुणप्पमाणे, से तं जीवगणप्पमाणे, से तं गुणप्पमाणे (सू० १४४) टीका :-चरन्त्यनिन्दितमनेनेति चरित्रं तदेव चारित्रं, चारित्र मेवगुणः २ स एव प्रमाणं २ सावद्ययोगविरतिरुपं. तच्च पंचविधम, सामायिकादि, पंचविधमप्येतदविशेषत: सामायिकमेव, छेदादि विशेषैस्तु विशेष्यमाणं पञ्चधा भिद्यते, तत्राद्यं विशेषाभावात् सामान्यसंज्ञायामेवावतिष्ठते सामायिकमिति, सामायिक पूर्वोक्तशब्दार्थ तच्चत्वरं यावत्कथितं च तत्रेत्वरं भाविव्ययदेशान्तरत्वात् स्वल्पकालं, तच्चाद्यचरमतीर्थकरकालयोरेव यावदद्यापि महाव्रतानि नारोप्यन्ते तावच्छिष्यस्य संभवति, आत्मन: कथां यावदास्ते तद् यावत् कथं-यावज्जीवमित्यर्थः यावत्कथमेव यावत्कथिकम् , एतच्च भरतैरावतेष्वाद्य चरमवर्जमध्यमतीर्थकरसाधूनां महाविदेहतीर्थकरयतीनां च संभवति, पूर्वपर्यायस्य छेदेनोपस्थापनं महाव्रतेष यत्र तच्छेदोपस्थापनं, भरतैरावतप्रथमपश्चिमतीर्थकरतीर्थ एव, नान्यत्रप तच्च सातिचारं निरतिचारं च तत्रेत्वरसामायिकस्य शैक्षकस्य For Private And Personal Use Only

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