Book Title: Jainagam Nyayasangraha
Author(s): Atmaramji Maharaj
Publisher: Jain Shastramala Karyalaya Ludhiyana

View full book text
Previous | Next

Page 74
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ६६ जैनागमन्यायसंग्राहः नास्मृती तु सर्वेष्वपि विशेषावगमेषु द्रष्टव्ये, तथा चाह प्रवचनोपनिषदवेदी भगवान् जिनभद्रगणिक्षमाश्रमण:- सामन्नमेत्तगणं निच्छयश्रो समयमोग्गो पढ़ो । तत्तोऽतरमीहिय वत्थु विसेसस्स जोडवा ||१|| छाया --- सामान्यमात्र ग्रहणं निश्चयतः समयमवग्रहः प्रथमः । ततोऽनन्तर मोहितवस्तुविशेषस्य योऽपायः ॥ १ ॥ सो पुरारीहावाया विक्खाओ उग्गहन्ति उवरि । एस विसेसावेक्खा सामन्नं गेरहए जेरण || २ || छाय - स पुनरीहापायापेक्षयाऽवग्रह इति उपचरितः । एष विशेषापेक्षया सामान्यं गृह्णाति येन ॥ २ ॥ ततोऽरणंतरमीहा तो अवाओ य तव्विसे सस्स । इह सामन विसेसाऽवेक्खा जावंतिमो भेओ ।। ३ ।। छाया - ततोऽनन्तरमीहा ततोऽपायश्च तद्विशेषस्य । इह सामान्यविशेषापेक्षा यावदन्तिमो भेदः || ३|| सव्वत्थेावाया निच्छयओ मोत्तुमाइसामन्नं । संववहारत्थं पुरण सव्त्रत्थावगाहोऽत्राओ || ४ || छाया सर्वत्रहापायौ निश्चयतो मुक्त्वाऽऽदि सामान्यम् । संव्यवहारार्थं पुनः सर्वत्रावग्रहोऽ पायः ॥ ४ ॥ तरतमजोगाभावेऽवा वियधारणा ततंमि । सव्वत्थ घोसणा पुरण भरिया कालंतरसई य || ५ ||" छाया - तारतम्ययोगाभावेऽपाय एव धोरणा तदन्ते । सर्वत्र वासना पुनर्भरिणता कालान्तरस्मृतिश्व ||५|| त्ति, तथा 'मेह' ति मेधा प्रथमं विशेषसामान्यार्थावग्रहमितिरिच्योत्तरः सर्वोऽपि विशेषसामान्यार्थावग्रहः ॥ तदेवमुक्तानि पश्चापि नामधेयानि भिन्नार्थानि यत्र तु व्यञ्जनावप्रहो न घटते तत्राद्यं भेदद्वयं न द्रष्टव्यं 'सेत्तं उग्गहो' त्ति निगमनम् । " मूलः "" से किं तं ईहा १, २ छव्विा पण्णत्ता, तं जहा- सोइंदिईहा चक्खिदिय ईहा घाणिदिईहा जिभिदिईहा For Private And Personal Use Only

Loading...

Page Navigation
1 ... 72 73 74 75 76 77 78 79 80 81 82 83 84 85 86 87 88 89 90 91 92 93 94 95 96 97 98 99 100 101 102 103 104 105 106 107 108 109 110 111 112 113 114 115 116 117 118 119 120 121 122 123 124 125 126 127 128 129 130 131 132 133 134 135 136 137 138 139 140 141 142 143 144 145 146 147 148