Book Title: Jainagam Nyayasangraha
Author(s): Atmaramji Maharaj
Publisher: Jain Shastramala Karyalaya Ludhiyana
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२८
जैनागमन्यायसंग्रहः
एरवए हेमवएं एरण्णवए हरिवस्से रम्मगवस्से देवकुरू उत्तरकुरू पुव्वविदेहे अवरविदेहे, तेसु सव्वेसु भवं वससि ?, विसुद्धतरात्रो णेगमो भणइ-भरहे वासे वसामि, भरहे वासे दुविहे पएणत्ते तंजहादाहिणड्ढभरहे उत्तरड्ढभरहे अ, तेसु सव्वेसु (दोसु) भवं वससि? विसुद्धतराश्रो णेगमो भणइ-दाहिणड्ढभरहे वसामि, दाहिणड्ढभरहे अणेगाई गामागरणगरखेडेकब्बडमडंवदोणमुहपट्टणासमसंवाहसण्णिवेसाई, तेसु सव्वेसु भवं वससि ?, विसुद्धतराश्रो णेगमो भणइ-पालिपुत्ते वसामि, पाइलिपुत्ते अणेगाइं गिहाई तेसु सव्वेसु भवं वससि ?, विसु० णेग० भणइ-देवदत्तस्स घरे वसामि, देवदत्तस्सघरे अणेगा कोहगा, तेसु सव्वेसु भवं वससि ?, विसु० णे० भणइ-गब्भ घरे वसामि, एवंविसुद्धस्स णेगमस्स वसमाणो, एवमेव ववहारस्सवि, संगहस्स संथारसमारूढो वमइ, उन्जुसुअस्स जेसु आगासपएसेसु अोगाढो तेसु वसइ, तिएहंसद्दनयाणं आयभावे वसइ । से तं वसहिदिट्ठतेणं ।
टीकाः-वसतिः निवासस्तेन दृष्टान्तेन नयविचार उच्यते, तथा नामकः कश्चित्पुरुषः पाटलिपुत्रादौ वसन्तं कश्चित्पुरुष वदेत् क भवान् वसति ? तत्राविशुद्धनैगमो भणति अविशुद्ध नैगमनयमतानुसारी सन्नसौ प्रत्युत्तरं प्रयच्छति-लोके वसामि, तन्निवासक्षेत्रस्यापि चतुदेशरज्ज्वात्मकलोकादनन्तरत्वाद् इत्थमपि च व्यवहारदर्शनात् , विशु
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