Book Title: Jainagam Nyayasangraha
Author(s): Atmaramji Maharaj
Publisher: Jain Shastramala Karyalaya Ludhiyana

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Page 35
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir भावप्रमाणम् भावप्रस्थकमेवेच्छन्ति, भावश्च प्रस्थकोपयोगोऽत: स प्रस्थकः, तदुपयोगवानपि च ततोऽव्यतिरेकात् प्रस्थकः, योहि यत्रोपयुक्तः सोऽमीषां मते स एवभवति, उपयोगलक्षणो जीव: उपयोगश्चत् प्रस्थकादिविषयतया परीणत: किमन्यजोवस्य रुपान्तरमस्ति १, यत्र व्यपदेशान्तरं स्यादिति भावः, 'जस्सवावसेणे' त्यादि, यस्य वा प्रस्थककत गतस्योपयोगस्य वशेन प्रस्थको निष्पद्यते तत्रोपयोगे वर्तमान कर्ता प्रस्थको, नहि प्रस्थकेऽनुपयुक्तः प्रस्थकं निर्वर्तयितु कर्ता समर्थः, ततस्तदुपयोगानन्यत्वात स एव प्रस्थकः, इमां च तेऽत्र युक्तिमभिदधति-सर्ववस्तु स्वात्मन्येव वर्तते, नत्वात्मव्यति रिक्त आधारे, वक्ष्यमाण युकत्या एतन्मतेनान्यस्यान्यत्र वृत्त्ययोगात्, प्रस्थक श्च निश्चयात्मक मानमुच्यते, निश्चयश्च ज्ञानं, तत्कथं जडात्मनि काष्ठभाजनेवृत्तिमनुभविष्यति १, चेतनाचेतनयोः सामानाधिकरण्याभावात् , तस्मात् प्रस्थकोपयुक्तः एव प्रस्थकः । 'से त' मित्यादि निगमनम् ।। मल.-से किं तं वसहिदिट्टतेणं ?, २ से जहानामए केई पुरिसे कंचि पुरिसं वएज्जा-कहिं भवं वससि ?, तं अविसुद्धोणेगमो भणइ-लोगे वसामि, लोगे तिविहे पएणत्ते, तंजहाउड्ढलोए अहोलोए तिरिअलोएं, तेसु सव्वेसु भवं वससि ?, विसुद्धो णेगमो भणइ-तिरिअलोए वसामि, तिरीअलोए जंबुद्दीवाइया सयंभूरमणपज्जवसाणा असंखिज्जा दीवसमुद्दा पएणता, तेसु सव्वेसु भवं वससि ?, विसुद्धतराअोणेगमो भणइजंबुद्दीवे वसामि, जंबुद्दीवे दस खेचा, पएणत्ता, तंजहा-भरहे For Private And Personal Use Only

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