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श्री जैन सिद्धान्त बोल संग्रह
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(२) अब भी मैं उसी अपराध को कर रहा हूँ, बिना उससे निवृत्त हुए आलोचना कैसे हो सकती है ? (३) मैं उस अपराध को फिर करूँगा, इसलिए आलोचना
आदि नहीं हो सकती। (४) अपराध के लिए आलोचनादि करने से मेरी अपकीर्ति अर्थात् बदनामी होगी। (५) इससे मेरा अवर्णवाद अर्थात् अपयश होगा । क्षेत्र विशेष में किसी खास बात के लिए होने वाली बदनामी को अपकीर्ति कहते हैं। चारों तरफ फैली हुई बदनामी को अपयश कहते हैं। (६) अपनय अर्थात् पूजा सत्कार आदि मिट जाएँगे। (७) मेरी कीर्ति मिट जाएगी। (८) मेरा यश मिट जायगा।
इन आठ कारणों से मायावी पुरुष अपने अपराध की आलोचना नहीं करता।मायावी मनुष्य इस लोक, परलोक तथा सभी जन्मों में अपमानित होता है । इस लोक में मायावी पुरुष मन ही मन पश्चात्ताप रूपी अग्नि से जलता रहता है।
लोहे की, ताम्बे की, रांगे की, सीसे की, चांदी की और सोने की भट्टी की प्राग अथवा तिलों की आग अथवा चावलों या कोद्रव आदि की आग, जौं के तुसों की आग, नल अर्थात् सरों की आग, पत्तों की आग, मुण्डिका, भंडिका और गोलिया के चूल्हों की आग (ये तीनों शब्द किसी देश में प्रचलित हैं) कुम्हार के आवे (पजावे) की आग, कवेलु (नलिया) पकाने के भट्टे की आग, ईंटें पकाने के पजावे की आग, गुड़ या चीनी वगैरह बनाने की भट्टी, लूहार के बड़े बड़े भटे तपे हुए, जलते हुए जो अग्नि के समान हो गए है, किंशुक अर्थात पलाश कुसुम की तरह लाल हो गए हैं, जो सैकडों ज्वालाएं