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श्री जैन सिद्धान्त बोल संग्रह
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(२) संशयप्रमाद-'यह बात इस प्रकार है या दूसरी वरह' इस प्रकार का सन्देह । (३) मिथ्याज्ञानप्रमाद- विपरीत धारणा। (४) राम-किसी वस्तु से स्नेह । . (५) द्वेष-अप्रीति । (६) स्मृतिभ्रन्श- भूल जाने का स्वभाव। ..... (७) धर्म में अनादर- केवली प्रणीव धर्म का पालन करने में उद्यम रहित । (८) योगदुष्पणिधान- मन, वचन और काया के योगों को कुमार्ग में लगाना।
(प्रवचनसारोद्धार द्वार २०७) ५८१- प्रायश्चित्त आठ
प्रमादवश किसी दोष के लग जाने पर उसे दूर करने के लिए जो आलोयणा तपस्या आदि शास्त्र में बताई गई हैं, उसे प्रायश्चित्त कहते हैं। प्रायश्चित्त के पाठ भेद हैं__ (१) आलोचना के योग्य (२) प्रतिक्रमण के योग्य (३) आलोचना और प्रतिक्रमण दोनों के योग्य (४) विवेकअशुद्ध भक्त पानादि परिठवने योग्य (५) कायोत्सर्ग के योग्य (६) तप के योग्य (७) दीक्षा पर्याय का छेद करने के योग्य (८) मूल के योग्य अर्थात् फिर से महाव्रत लेने के योग्य ।
(ठाणांग, सूत्र ६.५) ५८२-भूठ बोलने के आठ कारण
नीचे लिखे आठ कारण उपस्थित हो जाने पर मनुष्य के मुँह से असत्य वचन निकल जाता है। इसलिए इन आगे बातों को छोड़ देना चाहिए या उस समय बोलने का ध्यान विशेषरूप से रखना चाहिए। या मौन धारण कर लेना चाहिये साधु के लिए तो ये आठ तीन करण वीन योग से वर्जित हैं