Book Title: Jain Siddhanta Bol Sangraha Part 03
Author(s): Bhairodan Sethiya
Publisher: Jain Parmarthik Sanstha Bikaner

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Page 478
________________ 446 श्री सेठिया जैन पन्थमाला शय्यातरपिण्ड है। साधु के निमित्त से उनके सामने लाया हुआ आहार अभिहृतपिण्ड कहलाता है। एक घर से रोजाना गोचरी लाना नित्यपिण्ड कहलाता है। भिक्षा देने के लिए पहले से निकाला हुआ भोजन अप्रपिण्ड कहलाता है। 'मैं इतना आहार आदि आपको प्रतिदिन देता रहूँगा।' दाता के ऐसा कहने पर उसके घर से रोजाना उतना आहार आदि ले आना नियतपिण्ड कहलाता है। उपरोक्त पाँचों प्रकार का आहार ग्रहण करना साधु के लिए निषिद्ध है। इस प्रकार का आहार ग्रहण करने वाला साधु देशपाश्वस्थ कहलाता है। (8) सुश्रामण्यता- मूलगुण और उत्तरगण से सम्पन्न और पार्श्वस्थता (पासत्थापन) आदिदोषों से रहित संयम का पालन करने वाले साधु श्रमण कहलाते हैं। ऐसे निर्दोष श्रमणत्व से आगामी भव में सुखकारी भद्र कर्म बांधे जाते हैं। (8) प्रवचन वत्सलता-द्वादशाङ्ग रूप वाणी आगम या प्रवचन कहलाती है। उन प्रवचनों का धारक चतुर्विध संघ होता है। उसका हित करना वत्सलता कहलाती है। इस प्रकार प्रवचन की वत्सलता और प्रवचन के आधार भूत चतुर्विध संघ की वत्सलता करने से जीव आगामी भव में शुभ प्रकृति का बन्ध करता है। (१०)प्रवचन उद्भावनता-द्वादशाङ्ग रूपी प्रवचन का वर्णवाद करना अर्थात् गुण कीर्तन करना प्रवचनोद्भावनता कहलाती है / उपरोक्त दस बातों से जीव आगामी भव में भद्रकारी,सुखकारी शुभ प्रकृति रूप कर्म का बन्ध करता है। अतःप्रत्येक प्राणी को इन बोलों की आराधनाशुद्ध भाव से करनी चाहिए।( ठाणांग,सूत्र 58 ) /

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