Book Title: Jain Siddhanta Bol Sangraha Part 03
Author(s): Bhairodan Sethiya
Publisher: Jain Parmarthik Sanstha Bikaner

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Page 486
________________ 454 श्री सेठिया जैन मन्यमाला मुखों का इच्छानुसार अनुभव नहीं किया जा सकता। इसलिए शुभ दीर्घायु का होना द्वितीय सुख है। . (3) आन्यत्व-आत्यत्व नाम है विपुल धन सम्पत्तिका होना। * धन सम्पत्ति भी सुख का कारण है / इस लिए धन सम्पत्ति , का होना तीसरा मुख माना गया है। / (4) काम- पाँच इन्द्रियों के विषयों में से शब्द और रूप काम कहे जाते हैं। यहाँपर भी शुभ विशेषण समझना चाहिए अर्थात् शुभ शब्द और शुभ रूप ये दोनों सुरक का कारण होने से सुख / माने गए हैं। (5) भोग-पाँच इन्द्रियों के विषयों में से गन्ध, रस और स्पर्श * भोग कहे जाते हैं। यहाँ भी शुभ गन्ध शुभ रस और शुभ-स्पर्श काही ग्रहण है। इन तीनों चीजों का भोग किया जाता है इस :.लिए ये भोग कहलाते हैं। ये भी सुख के कारण हैं। कारण में काय्ये का उपचार करके इन को सुख रूप माना है। (6) सन्तोष- अल्प इच्छा को सन्तोष कहा जाता है / चित्त की शान्ति और मानन्द का कारण होने से सन्तोष वास्तव में सुख है। जैसे कहा है कि पारोग्गसारिनं माणुसतणं, सबसारियो धम्मो। विजा निच्छयसारा सुहाई संतोससाराई / / ___ अर्थात्- मनुष्य जन्म का सार आरोग्यता है अर्थात् शरीर की नीरोगता होने पर ही धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष इन पुरुषार्थ चतुष्टयों में से किसी भी पुरुषार्थ की साधना की जा सकती है। धर्म का सार सत्य है। वस्तु का निश्चय होना ही विद्या का सार है और सन्तोष ही सब मुखों का सार है। (7) अस्तिसुख- जिस समय जिस पदार्थ की आवश्यकता हो उस समय उसी पदार्थ की प्राप्ति होना यह भी एक सुख है

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