Book Title: Jain Siddhanta Bol Sangraha Part 03
Author(s): Bhairodan Sethiya
Publisher: Jain Parmarthik Sanstha Bikaner

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Page 477
________________ श्री जैन सिमान्त बोल संग्रह 44 आगामी भव में सुख देने वाले शुभ प्रकृति रूप कर्म बंधते हैं। (2) दृष्टि सम्पनब- सम्यादृष्टि होना अर्थात् सच्चे देव, गुरु, और धर्म पर पूर्ण श्रद्धा होना। इससे भी आगामीभव के लिए शुभ र्य बंधते हैं। (3) गोववाहिता- योग नाम है समाधि अर्थात् सांसारिक पदार्थों में उत्कण्डा (राग) का न होना या शास्त्रों का विशेष पठन पाठन करना / इससे शुभ कर्मों का बध होता है। (4) सान्विक्षमणवा- दूसरे के द्वारा दिये गये परिषह, उपसर्ग श्रादिको समयाव पूर्वक सहन कर लेना। आने में उसका प्रतीकार करने की अर्थात् बदला लेने की शक्ति होते हुए भी शान्तिपूर्वक उसको सहन कर लेना चान्तिक्षमणता कहलाती है / इस से बानामी भव में शुभ कर्मों का जन्म होता है। (5) बितेन्द्रिवता- अपनी बाँचों इन्द्रियों को वश में करने से आमामी भव में सुरक्कारी कर्म बंधते हैं। (६)अमायाचिता-मायाकपटाईको छोड़कर सरल भावरखना अमायावीपन है। इससे शुभ प्रकृति रूप कर्म का बना होता है। (7) अपाश्वेस्थता-ज्ञान, दर्शन, चारित्र की विराधना करने वाला पार्श्वस्थ (पासत्था) कहलाता है। इसके दो भेद हैंसर्व पार्श्वस्थ और देश पार्श्वस्थ / / (क) ज्ञान, दर्शन, चारित्र रूप रत्नत्रय की विराधना करने वाला सर्व पार्श्वस्थ है। (ख) बिना कारण ही (1) शय्यातरपिण्ड (2) अविहृतपिण्ड (3) नित्यपिण्ड (४)नियतपिण्ड और (5) अग्रपिण्ड को भोगने वाला साधु देशपावस्थ कहलाता है। जिस मकान में साधु ठहरे हुए हों उस मकान का स्वामी शय्यातर कहलाता है। उसके घर से आहार पानी आदि लाना

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