Book Title: Jain Siddhanta Bol Sangraha Part 03
Author(s): Bhairodan Sethiya
Publisher: Jain Parmarthik Sanstha Bikaner

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Page 475
________________ को जैन सिद्धान्त बोल संग्रह समय में उन कर्मों से रहित हो जाते हैं। (7) आधाकर्म-कर्मबन्ध के निमित्त को प्राधाकर्म कहते हैं। कर्मबन्ध के निमित्त कारण शब्द, स्पर्श, रूप, रस और गन्ध आदि हैं इस लिए ये आधाकर्म कहे जाते हैं। . (8) तपःकर्म-बद्ध, स्पृष्ट, निधत्त और निकाचित रूप से बन्धे हुए आठ कर्मों की निर्जरा करने के लिए छः प्रकार का बाह्य तप (अनशन, ऊनोदरी, भिक्षाचरी, रसपरित्याग, कायक्लेश, पतिसंलीनता) और छः प्रकार का आभ्यन्तर तप (पायश्चित्त विनय, वैयावृत्य, स्वाध्याय, ध्यान, व्युत्सर्ग) का आचरण करना तपःकर्म कहलाता है। (8) कृतिकर्म-अरिहन्त, सिद्ध, आचार्य, उपाध्याय और साधु आदि को नमस्कार करना कृतिकर्म कहलाता है। (10) भावकर्म-अबाधा काल का उल्लंघन कर स्वयमेव उदय में आए हुए अथवा उदीरणा के द्वारा उदय में लाए गए कर्म पुद्गल जीव को जो फल देते हैं उन्हें भावकर्म कहते हैं। ___ नोट-बँधे हुए कर्म जब तक फल देने के लिए उदय में नहीं आते उसे अबाधा काल कहते हैं। . _ (आचारांग श्रुतस्कन्ध 1 अध्ययन 2 उद्देशा 1 की टीका ) 761- सातावेदनीय कर्मबाँधने के दस बोल (1) प्राणियों (द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय) की अनुकम्पा (दया) करने से सातावेदनीय कर्म का बन्ध होता है। (2) भूत (वनस्पति) की अनुकम्पा करने से / (3) जीवों (पञ्चेन्द्रिय प्राणियों) पर अनुकम्पा करने से / (4) सत्त्वों (पृथ्वीकाय, अप्काय, तेउकाय और वायुकाय इन चार स्थावरों) की अनुकम्पा करने से। (5) उपरोक्त सभी प्राणियों को किसी प्रकार का दुःख न देने से।

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