Book Title: Jain Siddhanta Bol Sangraha Part 03
Author(s): Bhairodan Sethiya
Publisher: Jain Parmarthik Sanstha Bikaner

View full book text
Previous | Next

Page 439
________________ श्री जैन सिद्धान्त बोल संग्रह (3) प्रशास्तृदोष- सभा की व्यवस्था करने वाले सभापति या किसी प्रभावशाली सभ्य द्वारा पक्षपात के कारण प्रतिवादी को विजयी बना देना, अथवा प्रतिवादी के किसी बात को भूल जाने पर उसे बता देना। (४)परिहरण दोष-अपने सिद्धान्त के अनुसार अथवा लोकरूढ़ि के कारण जिस बात को नहीं कहना चाहिए, उसी को कहना परिहरण दोष है। अथवा सभा के नियमानुसार जिस बात को कहना चाहिए उसे न कहना या वादी के द्वारा दिए गए दोष का ठीक ठीक परिहार बिना किए जात्युत्तर देना परिहरण दोष है। जैसे-किसी बौद्ध वादीने अनुमान बनाया 'शब्द अनित्य है क्योंकि कृतक अर्थात् किया गया है / जैसे घड़ा।' शब्द को नित्य मानने वाला मीमांसक इसका खण्डन नीचे लिखे अनुसार करता है-शब्द को अनित्य सिद्ध करने के लिए कृतकत्व हेतु दिया है, यह कृतकत्व कौनसा है ? घट में रहा हुआ कृतकत्व या शब्द में रहा हुआ ? यदि घटगत कृतकत्व हेतु है तो वह शब्द में नहीं है, इसलिए हेतु पक्ष में न रहने से असिद्ध हो जायगा। यदि शब्दगत कृतकत्व हेतु है तो उसके साथ अनित्यत्व की व्याप्ति नहीं है इस लिए हेतु का साध्य के साथ अविनाभाव न होने से हेतु असाधारणानैकान्तिक हो जायगा। बौद्धों के अनुमान के लिए मीमांसकों का यह उत्तर ठीक नहीं है, क्योंकि इस तरह कोई भी अनुमान न बन सकेगा।धृएँ से आग का अनुमान भी न हो सकेगा। 'पर्वत में आग है क्योंकि धूआँ है, जैसे रसोईघर में।' इस अनुमान में भी विकल्प किए जा सकते हैं। __ अग्निको सिद्ध करने के लिए दिए गए धूम रूप हेतु में कौनसा ध्रम विवक्षित है, पर्वत में रहा हुआ धूम या रसोई वाला धूम ? यदि पर्वत वाला, तो उसकी व्याप्ति अग्नि के साथ गृहीत नहीं

Loading...

Page Navigation
1 ... 437 438 439 440 441 442 443 444 445 446 447 448 449 450 451 452 453 454 455 456 457 458 459 460 461 462 463 464 465 466 467 468 469 470 471 472 473 474 475 476 477 478 479 480 481 482 483 484 485 486 487 488 489 490